Thursday 25 November, 2010

धर्म की अवधारणा का नीतिशास्त्र

-भगवान स्वरूप कटियार

वर्तमान समय में धर्म मानव सभ्यता के विकास और प्रगति के मार्ग में एक बाधा की तरह दिख रहा है। धर्म जितना जोडता नहीं उतना तोड़ता है। बकौल कार्ल मार्क्स धर्म हृदय हीनों का हदय और आत्माहीनों की आत्मा था जो जनसाधारण के लिए अफीम साबित हुआ। धर्म का नैासर्गिक विकास हुआ है और उसकी व्यक्ति और समाज के जीवन में एक जगह बनी है जिसे नकारा नहीं जा सकता। गौतम बुद्ध और कबीर तक ने कई बार सनातन धर्म पर प्रश्न उठाये पर अंततः उनका भी दैवीकरण कर दिया गया और उनके विचार भी कर्मकाण्ड में खो गये इसलिए धर्म को एक गंभीर परिघटना की तरह समझने की जरूरत है। आवश्यकता अविष्कार की जननी है यह सूत्र धर्म और ईश्वर पर भी लागू होता है। अपनी असमर्थता और आवश्यकताओं से निपटने के लिए धर्म का आर्विभाव हुआ। मार्क्स द्वारा धर्म की व्याख्या सबसे समीचीन लगती है, जिसके अनुसार धर्म भौतिकता और अध्यात्म दोनो का आधार है। मनुष्य धर्म का सृजन करता है, धर्म मनुष्य का नहीं। धर्म वस्तुत उस आदमी की आत्मचेतना है जो या तो अपने आप तक पहुंच नहीं पाया या जिसने अपने आप को खो दिया। यहां आदमी का अर्थ है आदमी की दुनिया राज्य और समाज। इसलिए धर्म के विरुद्ध संघर्ष परोक्षतः उस दुनिया के विरुद्ध है जिसकी अध्यात्मिक सुगंध धर्म है। निश्चित ही धर्म का एक भौतिक पक्ष है और एक आध्यात्मिक, एक सैद्धांतिक और एक व्यवहारिक। एक सार्वभौमिक और एक स्थानीय, एक शाश्वत और एक परिवर्तनशील। एक शोषक और एक पोषक, अंततः एक सकारात्मक और एक नकरात्मक।
सभी धर्मो में एक निर्माता, पोषक और विध्वंसक की धारणा है। एक सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञता और सर्वव्यापी ईश्वर को धर्म का आधार माना ही जाता है। यह अलग बात है कि ईश्वर को सभी धर्मो में अपने-अपने ढंग से रचा और संजोया गया है। बौद्ध धर्म की एक शाखा में बुद्ध की मूर्तियां नही हैं तो एक में हैं। ईसाई धर्म में भी कैथोलिक चर्च में ईसा, मरियम, संतों की मूर्तियां होती हैं पर प्रोटेस्टेन्टों में नहीं। इस्लाम में तो खुदा पूरी तरह से अमूर्त है। हिन्दू धर्म में निर्गुण और सगुण दो श्रेणियां हैं और ईश्वर के कई-कई अवतार हैं। पर हिन्दू ही वह धर्म है जिसमें निरीश्वरवाद की गुंजाइश है। बुद्ध ने कभी ईश्वर की बात नहीं की पर जब बौद्ध धर्म का स्वरूप उभरा तब बुद्ध को भी भगवान कहते हुए अन्य धर्मो की तरह शरणदाता माना गया, और बुद्धम, शरणम् गच्छामि आधार बना। इस तरह हम देखते हैं कि भारतीय समाज में धर्म में ईश्वर की अनिवार्यता नहीं रही। भारतीय समाज में तो नास्तिक भी धार्मिक बन कर रहा सकता हैं। भारतीय दर्शन में भी भौतिकवादी चिंतन प्रचलित रहा है। कपिल मुनि और कड़ाद मुनि आदि निरीश्वरवादी ही थे। भौतिकवादी चिंतन बिचौलियों के लिए कोई जगह नहीं छोडता। इसीलिए रेशनलिज्म अर्थात तर्कशास्त्र का जोर बढ़ा तो यूरोप में भी चर्च पर सवाल उठाये गये और वोल्टेयर ने तो यहां तक कह दिया था कि ईसाई तो एक ही था ईसा मसीह, पर उसे भी सलीब पर चढ़ा दिया गया। फ्रांसीसी क्रांति हुई तो उसमें भी चर्च का विरोध हुआ। फ्रांसीसी क्रांति के अधिकांश नेता तार्किक थे और खुलेआम चर्च का विरोध करते हुए ईश्वर के भी विरोधी थे। ईश्वर की अवधारणा का óोत अगर कबीलाई सरकार, समाज का मुखिया या राजा था तो राज्य की तरह धर्म में भी पूरा आडम्बर प्रदर्शन, कर्मकाण्ड का आ जाना स्वाभाविक था। धर्म का एक पूरा कार्य व्यापार विकसित हो गया। देशकाल की जरूरतों के अनुसार बनते-बिगड़ते रहे और बाद में पूरी एक देवश्रंखला तैयार हो गई और जितने आदमी नहीं थे उतने देवताओं की कल्पना कर ली गई। आज भी गाडमैन बनने की प्रक्रिया थमी नही है। रजनीश जैसे तर्कशील व्यक्ति का भगवान रजनीश और ओशो बनने का प्रयास इसी परिणाम की परिघटना है।
मानव सभ्यता के विकास में संस्थानीकरण की बड़ी अर्थवत्ता है। कोई भी विचार बिना संस्था निर्माण के पूरी तरह चरितार्थ नहीं होता है। संस्थाओं ने एक ओर तो विचारों को संगठित और विस्तारित किया है तो दूसरी ओर उन्हें विकृत और कुंठित भी किया है। इसका कारण है विचारों की ठेकेदारी और बिचौलियागिरी। राजनीति के उद्भव में राजनैतिक दलों और नेताओं के सकारात्मक और नकारात्मक भूमिका जगजाहिर है। सभी धर्माे में पुरोहित, पादरी, मुल्ला और धर्मगुरू जैसे लोग पैदा होते गये हैं और उन्होने मनुष्य और ईश्वर के बीच बिचौलिचों को अनिवार्य बनाया है जिसके लिए उन्होने कर्मकाण्ड के हथकण्डें अपनाये जो वास्तव में निरर्थक और भ्रामक होते हैं तथा धार्मिक धंधागिरी को आगे बढ़ाते हैं। ऐसा हमेशा से होता रहा है। पर आज इस बिचौलियागिरी के वर्चस्व के जमाने में धर्म की दुर्दशा के लिए ये बिचौलिए ही जिम्मेदार हैं। हम गौर करें कि बुद्ध का सिर्फ भगवानीकरण ही नहंी हुआ, बल्कि तंत्रीकरण भी हुआ और कर्मकाण्डी भी बनाया गया। कर्मकाण्डी की जटिलता और कठोरता ने बौद्ध धर्म की तार्किकता और वैज्ञानिकता पर प्रश्नचिन्ह् लगाया। यूरोप में कैथोलिक चर्च में पादरियों ने चमत्कार को स्थापित किया। अंततः क्षमापत्रों के रूप में स्वर्ग के टिकट बिकने लगे। ऐसी स्थिति में प्रोटेस्टेंट समुदाय का आर्विभाव अनिवार्य हो गया। पर सभी ईसाई सम्प्रदायों में अनुष्ठान और अंधविश्वास बरकार रहे। इस्लाम में भी शुरूआती सादग्री के बाद खलीफाओं और मुल्लाओं को आगे बढ़ाने वाला वर्चस्व कायम हो गया। यह हाल दुनिया के सबसे बड़े धर्मो का है।
आज धर्म का कारोबार इतना व्यापक और सर्वव्यापी हो चला है कि उसके बिना समाज की कल्पना करना मुश्किल हो गया है। नितान्त वैयक्तिक पूजा का भी व्यवसायीकरण हो चुका है और कोई भी पूरा बिना पुरोहित, पुजारी, पंडा आदि के नहीं हो सकती है। त्योहारों का एक पक्ष धार्मिक और दूसरा सामाजिक होता था। पर अब वह मूलतः धार्मिक तथा आर्थिक होते जा रहे हैं। हर त्योहार बाजार के लिए नये-नये अवसर प्रदान करता है। धर्म का आर्विभाव जीवन की असुरक्षा और अनिश्चय के कारण हुआ होगा, और वह सारे विकासों के बावजूद समाप्त नही हो पाया। इसलिए धर्म की जगह समाज में यथावत बनी रही। धर्म के विकास को अवसर मिला और पुरोहितों-पुजारियों ने दो बड़े ही कारगर उपकरणों का अविष्कार किया। ये अविष्कार थे- पुरस्कार और दण्ड तथा शुद्धता और अशुद्धता। पुरस्कार और दण्ड का सबसे कौशलपूर्ण प्रयोग स्वर्ग और नरक की अवधारणा के रूप में किया गया। अर्थात् अच्छे कर्मों का पुरस्कार स्वर्ग और बुरे कर्मों का दण्ड नर्क है। मनुस्मृति में इनमें से एक ही सबसे कुख्यात है। शुद्धता को श्रेष्ठता का मानक बनाया गया। इस हथकण्डे से ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य की श्रेणीबद्धता कर्म से नहीं जन्म से तय कर दी गयी और सभी शूद्रों को हमेशा के लिए अशुद्ध करार देकर इसे धार्मिक जामा पहना दिया गया। भारतीय समाज के सबसे दो घातक शत्रु ब्राह्मण से श्रेष्ठता और पितृसत्ता है। एक बार यह मान्य हो गया तो शूद्रों और नारियों को धार्मिक कर्म से वंचित कर दिया गया। यह श्रेष्ठता बोध इतना व्याप्त है कि नीचे से नीचे वाला भी अपने को किसी न किसी रूप में ऊपर समझता है। तभी तो दलित प्रताड़ित भी अपनी पत्नियों से अपने को श्रेष्ठ समझते हैं और उनका हर तरह से शोषण और दमन करते हैं। महिला भी जब सत्ता पा जाती है तो उसका व्यवहार भी पितृसत्तात्मक हो जाता है।
धर्म और विज्ञान दोनों का चमत्कार से निकट का सम्बन्ध है। फर्क सिर्फ इतना है कि धर्म को चमत्कार के तत्व को संजोकर रखा गया है, जिसे चमत्कार के रूप में विकसित किया गया है, जबकि विज्ञान जादू को नकारता हुआ धर्म के विपरीत चलता है। इस दौरान विज्ञान का आधार विश्वास और धर्म का आधार अंधविश्वास होता गया। इसलिए कुछ वर्षों से धर्म के हिमायती धर्म के वैज्ञानिक आधार और धर्म तथा विज्ञान में अन्तर्निहित समानता की बात करने लगे हैं। इसके लिए रिलेटिविटी और प्रोबेबिलिटी के सिद्धान्तों का सरलीकरण उनकी धर्म से भ्रामक समानता बतायी जाने लगी है। यह तो गलत है पर दूसरी ओर कुछ लोग जैसे एलन वुड्स अपनी किताब ‘रीजन एवं रिवोल्ट’ में इस बात पर जोर देते रहे कि वैज्ञानिकों में तनिक भी अनिश्चितता और ईश्वर में विश्वास वैज्ञानिकता का हनन है। पर ये भी सच्चाई है कि बहुत से वैज्ञानिक धार्मिक होते रहे तथा ईश्वर को पूरी तरह नकारने वाले वैज्ञानिक संख्या में बहुत ज्यादा नहीं हैं। विज्ञान और धर्म में अनिवार्य अन्तर्विरोध का प्रश्न राजनीतिक अधिक है। दोनों के बीच अनिवार्य अस्तित्वगत टकराहट नहीं है। दोनों की प्रकृति परस्पर विरोधी है पर धर्म मूलतः वैयक्तिक है तो विज्ञान सामुदायिक। फिलहाल वे एक-दूसरे की राह नहीं रोकते हैं।
क्रान्ति और धर्म के बीच असहज रिश्ता रहा है। फ्रांस की क्रान्ति में वह पूरी तरह उजागर हो गया था। क्रान्ति के पहले का जो भौतिक वातावरण था उसमें वाल्टेयर द्वारा चर्च की आलोचना का निश्चित प्रभाव था। अट्ठारहवीं शती में जो इनलाइटिनमेंट हुआ उसमें रैशनल का जोर था और तर्क बुद्धि तथा धर्म सहगामी नहीं थे। क्रान्ति हुई तो जितना राजतंत्र विरोध में नहीं था उससे अधिक चर्च विरोध में था। क्रान्ति के पहले कुछ कामों में चर्च विरोधी नीति का प्रतिपादन हुआ। एक कानून बना कि गिरिजाघरों की सम्पत्ति जब्त कर ली जाय और पादरियों को सरकारी मुलाजिम बना लिया जाय। कुछ पादरियों ने इसका समर्थन नहीं किया। क्रान्ति की जड़ों के मजबूत न होने के कारण उसकी धर्म विरोधी छवि थी। रूसी क्रान्ति में भी धर्म के प्रतिगामी शक्ति होने के सिद्धान्त की स्थापना क्रान्तिकारियों के बीच सर्वमान्य थी। क्रान्ति का विरोध करने वालों में जार्जशाही का समर्थक रूस का आर्थोडाक्स चर्च प्रमुख था। क्रान्ति के बाद चर्च की सत्ता समाप्त कर दी गयी और सारी सम्पत्ति जब्त कर गिरिजाघरों और दूसरे धर्मस्थलों को सार्वजनिक सांस्कृतिक केन्द्रों की तरह विकसित किया गया। पर धर्म की न तो आदेश द्वारा स्थापना हुई थी और इसलिए उसका किसी एक आदेश द्वारा अन्त भी नहीं हो सकता था। धर्म का एक लम्बी प्रक्रिया के दौरान एक नैसर्गिक स्पेस बना है इसलिए सोवियत यूनियन उसे समाप्त नहीं कर सका। धर्म की सोवियत रूस में स्थिति तब उजागर हुई जब उसका विघटन हुआ। सारे धार्मिक स्थल अचानक गुलजार हो गये। इससे साफ जाहिर है कि धर्म विरोध क्रान्ति के बाद आरोपित किया गया था। धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शन भले ही न होते हों पर अन्दर ही अन्दर धर्मपरायणता बरकरार थी। धर्म और क्रान्ति का एक रिश्ता ईरान में उजागर हुआ जब पूँजीवादी साम्राज्य समर्थक ईरान के भ्रष्ट शासक प्रजाशाह पहलवी के विरुद्ध धर्मगुरु खुमैनी के नेतृत्व में क्रान्ति हुई थी और शाह की सत्ता को अमेरिका भी नहीं बचा पाया था। तब से वहाँ धर्म केन्द्रित शासन ही बरकरार है और उसका अमेरिका विरोध भी जग जाहिर है। पर धर्म केन्द्रित रहते हुए कोई भी शासक कितना जन-पक्षधर हो सकता है, यह विचारणीय है। इसकी सीमा स्पष्ट है। धर्म का एक नैतिक पक्ष भी होता है। वह भगवान के साथ शैतान को भी या यूँ कहें शैतान के नाते भगवान के अस्तित्व को स्वीकार करता है। एक संवेदनशील और न्यायप्रिय व्यक्ति धर्मपरायण भी हो सकता है। इसके अलावा विज्ञान और टेक्नोलॉजी की निर्णायकता इस तरह बढ़ी है, धर्म के नाम पर इतने अनाचार और भ्रष्टाचार होने लगे हैं उससे कुछ धार्मिक लोग भी धार्मिक जड़ता के विरुद्ध हो रहे हैं जो बिल्कुल स्वाभाविक है।



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