Thursday, 15 September 2011

विश्व शांति बनाम हथियारों का कारोबार



भगवान स्वरूप कटियार
दुनिया की सबसे बडी ताकत अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को गत वर्श विष्व शान्ति के नोबेल पुरश्कार से नबाजा गया.यह बार बार सिध्द हो रहा है कि व्यक्ति, कुर्सी का चरित्र और चेहरा नहीं बदल बाता पर कुर्सी व्यक्ति का चेहरा बदल देती है.विश्व शान्ति पुरस्कार से नबाजे गये अमेरिका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देष में हथियारों के कारोबार को लगातार बढावा दे रहे . उसके पीछे सोची समझीे चाल यह है कि दुनियां के गरीब देष विकास करें और आत्म निर्भर बनने की बजाय हथियार खरीदे और आपस में लडे और अमेरिका का हथियार कारोबार फले फूले और उसकी चौधराहट दुनियां में बरकरार रहे.जरा देखें गत पांच वर्शों में भारत का हथियार आयात २१ गुना बढ गया है और पाकिस्तान का हथियार आयात इस बीच १२८ गुना बढा है. यह कैसा मजाक है कि जिन देशों के पास लोगों का पेट भरने के लिए भर पेट भोजन नहीं है वहां की सरकारें हथियारों की हवस पर जनता क पैसा फूंके जा रही है. विडम्बना देखिए कि नोबेल षान्ति पुरस्कार से नवाजे जाने के तुरन्त बाद साउदी अरब के साथ ६॰ अराब डालर के हथियार बेचने का सौदा किया.पिछले तीन दषक का यह सबसे बड हथियार सौदा है. इस सौदे से बोइंग कम्पनी के एफ-१५ बनाने वाले विभाग को आने वाले समय २॰१८ तक के लिए रषन पानी मिल गया. जबकि इस सौदे से पह्ले इसी बोइंग कम्पनी जो दुनियां की सबसे बडी हथियार निर्माता कम्पनी है के प्रबंन्धन और कर्मचारियों में बहश चल रही थी कि बोइंग प्रबंन्धन एफ-१५ लडाकू विमान युनिट के ४४ हजार कर्मचारियों की छटनी करने जारहा था क्योंकि लम्बे समय से इस जेट विमान के खरीददार नहीं मिल रहे थे.मगर बदलाव के नारे के साथ वाइट हाउस में प्रवेश करने के साथ ही ओबामा के हस्तक्षेप के बाद घटनाक्रम् में यह बदलाव तेजी से आया.छटनी की योजना बना रहे बोइंग कंम्पनी अब नये कर्म्चारी भरती करने जारही है और विशेषज्ञों का कहना है कि ओबामा द्वारा साउदी अरब के साथ किया गया यह सौदा हथियार बनाने की इस सबसे बडी कंम्पनी में ७७ हजार नौकरियां सुरक्षित करेगा.
बिडंम्बना देखिए कि साउदी अरब को बेचे जाने वाले एफ-१५ विमान अब पुराने पड चुके हैं.शीतयुध्द के दौरान रूस के मिग विमानोंका मुकाबला करने के लिए इनका निर्माण् किया गया था. आखिर अमेरिका के इस कचरे से साउदी अरब किससे मुकाबला करेगा.तेल के बल पर कमाये अकूत् धन का दुरुपयोग कर अमेरिका जैसे विकसित देश खाडी देशों को पुराने हथियारों को खपाने के अड्डों में तब्दील कर रहे हैं. आतंकवाद से लडाई और सुरक्षा के नाम पर गरीब देषों के पैसे से विकसित देशों की तिजोरियां भरी जा रही हैं.दुनियां का हथियार उद्योग डेढ खरब डालर का है जो वैश्विक जीडीपी का २.७ प्रतिशत है और इस अमानवीय उद्योग पर ९॰ प्रतिशत कब्जा पश्चिमी विकसित देशों का है और उसमें भी ५॰ फीसदी पर अमेरिका का कब्जा है.दुनियां की तीन सबसे बडी हथियार निर्माता कंम्पनियां अमेरिका की हैं। दो धु्रवीय दुनियां के जमाने में अपने अपने खेमें के देशों को हथियारों की आपूर्ति करने में अमेरिका और सोवियतसंघ में होड रहती थी. पर सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनियां भर में हथियारों की आपूर्ति और खपत् में कमी आयी जिसके परिणामस्वरूप बोइंग,
रेथ्योन और लाकहीड जैसी बडी हथियार कंम्पनियों की बैलेंसशीट गडबडा गयी. इन्तारानेशानल पीस रिसर्च गु्रप (सिपरी ) स्टाकहोम के आंकडे भी इस बात पर मोहर लगाते हैं. ओबामा से दुनियां को बहुत उम्मीदें थीं. एक तो अष्वेत हैं इसलिए यह समझा जाता है कि उन्हें तीसरी दूनिया की बेहतर जानकारी है और उनकी समस्याओं के प्रति वे प्रतिबध्द और निष्ठावान होंगे. पर जिस तरह से वाशिंगटन नीतकारों ने अमेरिकी हथियार कंपनियों के हथियार खपाने के लिए आग से खेलना षुरू कर दिया है. यह क्डुवी सच्चाई है कि अमेरिका चाहे लाख घोषणा करे पर अलकायदा,हमास,से लेकर लिट्टे तक के आतंकवादी संघळन उसी के हथियारों पर पलें हैं. अमेरिकी हथियारों की खपत बढे इसके लिए जरूरी था कि अलग थलग पडे देषों में आपसी झगडे बढें. अमेरिका ने दुत्कार और पुचकार की नीत अपना कर अपना अभियान चला रहा है .पकिस्तान-भारत- अफगानिस्तान,मध्य-पूर्व,खाडी और अफ्रीकी देशों के उलझे तनावपूर्ण संम्बन्धों अमेरिका की भुमिका छिपी नहीं है।नब्बे के दषक में तीसरी दुनियां की कई अर्थव्यवस्थाओं ने मैकडोनाल्ड और कोका कोला के साथ ही बोइंग जैसी कंम्पनी के लिए रास्ता साफ कर दिया था.एक रपट में यह भी खुलासा किया गया कि अमेरिकी कंम्पनियां अन्तरराश्ट्रीय कानून से परे जाकर २८ से ज्यादा आतंकवादी संगळनों को हथियार बेंच रही हैं.हम भले ही यह समझें कि अमेरिका स्तर पर् आतंकवाद के खिलाफ अभियान चला रहा है पर इस आड में उसने अकूत धन कमाया है. अमेरिका के रक्षा विभाग ने गत वर्श अमेरिकी काग्रेस को दी गयी सूचना में खुलासा किया है कि १९९५ से रक्षा सौदों में हर साल १३ अरब डालर की बढोत्तरी हो रही है.२॰॰१ के बाद से रक्षा सौदों की रफ्तार तीन गुनी हो गयी है.भारत पहले हथियार रूस से खरीदता था पर २॰॰१ में बुश प्रशासन के समय से शुरू हुई दोस्ती ने अमेरिकी हथियार कंपनियों के लिए दिल्ली के दरवाजे खुल गये हैं.गत २॰॰९ में भारत ने बोंइंग से निगरानी विमान खरीदने के लिए २.१ अरब डालर का समझौता किया था और हाल की अपनी भारत यात्रा के दौरा राष्ट्रपति ओबामा ने ४.१ अरब डालर का सौदा विमान आपूर्ति के लिए किया.सुरक्षा मामलों के जानकारों का मानना है कि आगामी एक दशक में भारत अपने सैनिक साजो सामान पर १॰॰ अरब डालर की भारी भरकम रकम खर्च कर सकता है जिसका सबसे बडा हिस्सा अमेरिकी हथियार कंपनियों को जाने वाला है.ऐसे में दक्षिण एशिया में शान्ति की अमेरिकी कवायतों को समझा जा सकता है.विकीलीक्स द्वारा फरबरी २॰१॰ मे़् जारी की गयी एक केबल में मैसाचुसेटस के सीनेटर जान कैरी अमेरिकी हथियार कंम्पनियों के लिए लाबिंग करते नजर आ रहे हैं.यद्यपि अमेरिकी दूतावासों पर राजनैतिक दखलंदाजी और हथियार कंपनियओं के हित साधने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं ब्राजील और नार्वे की विकीलीक्स केबलें भी की हथियार दलाली की बात प्रमाणित करती है.
शान्ति का मशीहा भारत हथियार खरीदने में सबसे आगे है. स्टाकहोम की संस्था इन्तारानेशानल पीस रिसर्च इन्स्तीत्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनियां में सबसे अधिक हथियार आयात किये हैं. दुनियां के हथियार उधोग का ९ फीसदी कारोबार भारत द्वारा किया गया और पिछ्ले ५ सालों में भारत का हथियार आयात २१ गुना बढा और इसी अवधि में पाकिस्तान का हथियार आयात १२८ गुना बढा.यह कैसी बिडंम्बना है कि जिन देशों में जनता को भर पेट रोटी मयस्सर ना हो वहां हथियारों कि हवस पर सरकारें जनता का पैसा वेमुरौअत फूंक रही हैं.दुनियां के १॰ बडे हथियार निर्यातक देश चीन को छोड कर पश्चिमी देश हैं.जी-८ के देशों वैश्विक हथियार कारोबार के ९३ फीसदी हिस्से पर कब्जा है शेष ७ फीसदी में तीसरी दुनियां के देष् हैं.भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली अन्तरराश्टीय संस्था त्रनास्पेरेंसी इन्टरनेषनल के अनुसार अंतरराष्ट्रीय हथियार उद्योग दुनियां के तीन महाभ्रष्ट उद्योगों मंे एक हैअमेरिका
हथियार उद्योग को बढावा देते हुए विश्व शान्ति का मशीहा नहीं् बन सकता .कम से भारत जैसा दुनियां का सबसे लोकतंत्र को तो यह बात भलीभांति समझ लेनी चाहिए.

अमेरिकी कंगाली का सच



भगवान स्वरूप कटियार
दुनियां पर अपनी धौंस और चौधराहट चलाने वाला अमेरिका आज फिर कंगाली की कगार पर खड़ा है . बड़ी मुश्किल से मंदी से उबर ही रहा था कि फिर से वह गहरे आर्थिक संकट फंसता दिखाई दे रहा है . खोखली अर्थव्य्ावस्थाओं का यही हश्र् होता है . जो अर्थव्यवस्था उत्पादन , रोजगार और घरेलू बाजार पर आधारित नहीं होती है उसका अन्तततोगत्वा यही परिणाम होता है ़ काष हमारे अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री मनमोह्न सिंह अर्थषास्त्र के इस मर्म को समझ पाते. लिबरलाइज़ेशन ( उदारीकरण ) पूंजीवद को बढ़ावा देता है ,यह् गरीबी का समाधान नहीं है . गरीबी का समाधान है रोजगारपरक उत्पादनोन्मुख अर्थव्यवस्था जिससे दुनियां के अधिकाँश देश विमुख होते जा रहे हैं . मुनाफा और पूंजी व्यापारियों के सरोकार हो सकते हैं सरकारों के नहीं . सरकारों के सरोकार सीधे जनता के हितों से जुड़े होते हैं. रेटिंग एजेंसी स्टैन्डर्ड एण्ड पुअर द्वारा अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटाने से हड़कम्प मच गया और दुनियां का षेयर बाजार धड़ाम से औंधे मुंह नीचे गिरा . दुनियां की वे बैंके जो काले धन का कारोबार करती हैं कालाधन वापस करने पर राजी होती नजर आरही हैं , आखिर कहां लगायें काला धन जब षेयर बाजार का यह हाल है. दुनिया की अर्थव्यवस्था में जिस तरह का हड़कम्प मचा है उससे मंदी के संकट की आशंकाएं मडराने लगी हैं . जी-७ के देष विचार विमर्श में जुट गये हैं . अमेरिका अन्दरूनी और बाहरी कई संकटों से जूझ रहा है . भले ही रिपब्लिक और डेमोक्रेट में समझौते से सरकारी कर्ज की सीमा बढ़ाने का संकट हल हो जाय पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था का बजट घाटा कम करने और कर्ज अदायगी की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है क्योंकि अमेरिकी ट्रेजरी और डालर दुनियां में सबसे विश्वसनीय माने जाते हैं और इसी आधार पर अमेरिकी बांडों पर निवेश सबसे सुरक्षित माना जाता है . इस तरह हम कह सकते हैं कि द्वितीय विश्वयुध्द के बाद विश्वार्थाव्यवस्था के बने ढांचे को गहरा झटका लगा है और इसीलिए चीन जैसे देश ने डालर को विश्व की मानक मुद्रा मानने पर सवाल खड़ा कर दिया है .
जाहिर है कि बड़े आर्थिक संकट का डर् उभरने लगा हैं . लगता है कि मंदी की मार फिर से अमेरिका को तबाह करेगा . अपना बोया खुद को ही काटना पड़ता है , वही अमेरिका के साथ हो रहा है . ईराक को तबाह और बरबाद करने में अमेरिका ने अपने देष की अर्थ व्य्ावस्था दांव पर लगा दी उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी विष्व अर्थव्यवस्था में नये षक्ति केन्द्र उभर रहे हैं . भारत के षेयर बाजार में भी भारी गिरावट आयी है क्योंकि आज के दौर में सारी अर्थव्यवस्थाएं वैष्विक हैं और एक दुसरे से जुड़ी हैं . पर भारत पर षायद इसका इतना बुरा असर न पड़े क्योंकि भारत की अर्थ व्यवस्था घरेलू बाजार पर आधारित है . विष्व अर्थव्यवस्था में गिरावट हमारे निर्यात पर गहरा असर डालेगा. ४॰ अरब डालर भारत ने अमेरिका निवेष किये हैं इस कारण भारत को भी गहरा झट्का लग सकता है .मनमोहन सिंह की सारी पढ़ाई इस देष के काम न आयी .घरेलू कारणों से हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा सकती है जैसे खेती की उत्पादकता और कृषि उत्पादों की वितरण की समस्या या फिर बुनियादी ढांचे की कमी और भ्रश्टाचार की काली कमाई आदि . इससे एक बात उभर कर सामने आयी जो अर्थव्यवस्थाएं घरेलू बाजार और बचत पर नहीं टिकी हैं उनका ढहना तय है . इस माह का पहला हफ्ता अमेरिका के राजनैतिक और आर्थिक इतिहास में एक शर्मनाक लमहे के रूप में याद किया जायेगा . भले ही रिपब्लिक और डैमोक्रेट के समझौते से अमेरिका डिफाल्टर होने से बच गया हो पर वैश्विक त्रासिदी तो आ ही गयी दुनियां भर के शेयर बाजार धराशायी हो गये . अमेरिका के दक्षिणपंथियों द्वारा खड़ा किया गया कर्जसीमा का यह संकट उतना मायने नहीं रखता जितना विष्वअर्थव्यव्स्था की खतरनाक संवेदनषीलता और योरुप का गहराता संकट रखता है . ऐसे में स्टैन्डर्ड एण्ड पुअर एजेंसी ने अमेरिका की रेटिंग कम करके अमेरिका की कर्ज चुकाने की क्षमता पर एक गम्भीर सवाल खड़ा कर दिया है गौरतलब है कि इसी एजेंसी ने अमेरिका की रेटिंग ट्रिपिल ए की थी और अब घटा कर डबल ए कर दी . अमेरिका को सरकारी कर्ज की सीमा बढ़ाने की बह्स में उलझने की बजाय कुछ ऐसा करना चाहिए था जो उसकी अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी था जैसे अमेरिका को अपना पूरा ध्यान रोजगार अवसर बढ़ाने और विकास दर की गति हासिल करने पर केन्द्रित करना चाहिए और घरेलू और बाहरी कर्ज के मामलों को गंभी्रता से हल करने की कोषिष करनी चाहिए जिसने लाखों परिवारों को तबाही की आग में झोंक दिया . अमेरिका को अपने नागरिकों की क्रयषक्ति बढ़ानी चाहिए थी तथा सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए था न कि घटाना़ . अमेरिका की सरकारी कर्ज सीमा १४.३ ट्रिलियन डालर है और अगर इसे सेनेट द्वारा न बढ़ाया गया होता तो अमेरिकी सरकार डिफाल्ट हो जाती और उधारी नहीं ले पाती . यह उसकी कानूनी सीमा थी . काष भारत की भी कर्ज की कोई कानूनी सीमा होती और कर्ज लेने तथा न चुका पाने की जबाबदेही होती . सरकारी कर्ज का बोझ मह्गाई और टैक्स के रूप में देश के हर आम नागरिक पर पड़ता है जबकि फायदा सांसद ,मंत्री , नौकरशाह , व्यापारी उद्योगपति सब्सिडी और मोटी तनख्वाहों और रिष्वत के रूप में उठाते हैं . लगभग प्रतिवर्श सांसदनिधि और संासदों के भत्ते बढ.ाये जाते जिससे देष पर भारी आर्थिक बोझ बढ.ता है और मजे की बात यह कि सांसदों के भत्ते आयकर सीमा से बाहर हैं . कानून बनाने वाली हमारी संसद जनहितों और जनमत की उपेक्षा कर स्वार्थगत कानून बनाती है . संासद की यह सरासर संवैधानिक तानाषाही य जनता की भाषा में खुली गुंडई है . इस पर अंकुष लगाने का संवैधानिक अधिकार सीधे जनता के हांथ मे होना चाहिए ताकि जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों की लगाम अपने हांथ में रख सके और तथाकथित जनसेवक जनभक्षक न बन सकें . एक चौकाने वाला सच यह कि हमारे देष का राजस्व व्यय ६३ प्रतिशत है और पूंजीगत व्य्ाय मात्र ३७ प्रतिषत है . उल्लेखनीय है कि पूंजीगत व्यय से विकास योजनायें चलती हैं और राजस्व व्यय से सरकारी खर्च जबकि चीन में पूंजीगत व्यय राजस्व व्यय से अधिक है . ऐसा उन तमाम देषों में है जहां कि सरकारें ईमानदार हैं और जनहित को सर्वोपरि मानकर अपना कामकाज करती हैं .
भारत की तरह अमेरिका भी इस सच्चाई से मुंह मोड़ रहा है कि उसकी यह दुर्गति युध्द पर खरबों डालर आग में ईंधन की तरह झोंकने से तथा घाटे और कर्ज में डूबे कार्पोरेट कंपनियों और बैंकों के बेलआउट पर लुटाए खरबों डालर की बजह से हुई है . भारत की सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि भारत की तबाही की जड़ में मूल कारण भ्रश्टाचार है जिसके जनक सिर्फ और सिर्फ राजनेता हैं . राजनीत का अपराधीकरण भ्रश्टाचार के कारण हुआ और आज संसद और विधान सभाओं में बैठे सफेदपोश अधिकाँश दागी अपराधी और करोड़पति हैं . जनता सीधा एक सवाल पूछती है कि गरीब घरों, किसान परिवारों से आये मुलायम , लालू ,पासवान ,मायावती जैसे तमाम नेता जो मूलरूप से २ एकड़ से अधिक के जोतदार नहीं रहे अरब-खरब पति कैसे होगये जबकि इनका न कोई कारोबार है न कोई उद्योगधंधा . अमेरिका में आये इस संकट से यदि हमने समय रहते सबक न लिया तो हमारा जहाज भी बीच मझधार में डूबेगा और हम कुछ नहीं कर पायेंगे पछताने के सिवा .

जबाबदेह लोकतंत्र के लिए चुनाव सूधार जरुरी


भागवान स्वरूप कटियार
आजादी के बाद के ६४-६५ सालों में संसदीय लोकतंत्र ने देशवासियों को जिस तरह निराशा और हताशा किया उससे एक बात तो साफ है कि जनता ने जिन्हें चुन कर संसद और विधान सभाओं में भेजा वे देशवासीयों की कसौटी पर खरे नहीं उतरे । भ्रष्ट राजनीत और भ्रष्ट नौकरशाही के गठजोड़ ने देश को एक उपनिवेश में तब्दील कर दिया जहां भ्रश्टाचार के साम्राज्य में जनता की कोई आवाज नहीं होती . जनता तो महज मतदान तक सीमत है जैसे कोई गरीब साहूकार की बही में अंगूठा लगा कर जिनदगी भर के लिए बन्धक हो जाता है ़ लोकतंत्र में जनता ही मालिक होती है पर हिन्दुस्तान में उसकी स्थिति नौकर से भी बदतर हो है हमारी चुनावी प्रक्रिया में ही ऐसी खामियां हैं जिसके कारण धनबल और बाहुबल का सहारा लेकर संसद और विधान सभाओं में घटीया और भ्रष्ट - अपराधी लोग चुन लिये जाते हैं पर् स्वच्छ छवि वाले,ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ तथा देशभक्त लोग चुन कर नहीं आपाते . यही बजह है देष में व्यवस्था नहीं बदलती सिर्फ सत्ता बदलती है .भ्रष्टाचार में आंकठ डूबा यह देश आंतकी हमलों तथा आंन्तरिक खतरों और बाह्य सुरक्षा के खतरों से जूझ रह है . महगाई ने लोगों का जीना दूभर कर दिया और हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं . मतदान के द्वारा जनता का भरोसा और विष्वास की षक्ति अगर उनकी जादू की छड़ी नहीं बन सकती तो यह उनकी राजनैतिक इच्छाशक्ति का दिवालियापन है .
चुनाव सुधार से हमारी अपेक्षाए क्या हैं ,इसी से तय होंगी चुनाव सुधार की षर्ते और व्यवस्थाएं . सबसे पहले तो हम अनिवार्य मतदान के प्रावधान के जरिये सभी देशवासियों को जबाबदेह् सरकार और जबाबदेह विपक्ष चुनने में भागीदार बनायें ताकि छù बहुमत क ेबल पर अल्पमत की सरकारें ना चुनी जा सकें . अपराधी और अपराधी छवि के लोग चुनाव में प्रत्याषियों के रूप में हिस्सा ना ले सकें इसके लिए भी कानून बना कर वन्दिश लगाये जाने सख्त जरूरत है . आस्ट्रेलिया जैसे अनेक देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था है जहां मतदान के दिन कोई अवकाश नहीं होता है . वहां यह चुनाव प्रक्रिया एक सप्ताह तक चलतीन है . बीमार अथवा चलने फिरने में असमर्थ व्यक्ति के घर जाकर मतदान संम्पन्न कराया जाता है .दृढ़ इच्छाषक्ति से सबकुछ संभव है . बेहतर हो चुनाव सरकारी खर्चे पर हो अर्थत किसी भी राजनैतिकदल को चुनाव में किसी भी रूप में धन के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया जाय ताकि धन उगाही का मूल स्रोत ही खत्म हो जाय, और धनबल पूर्णरूपेण रोक लगायी जा सके. सभी पार्टियों में आन्तरिक लोक्तंत्र सुनिश्चित किया जाय जिसके लिए नियमित चुनाव चुनाव आयोग के अधीन करवाये जांय जिसमें कर्मठ और सक्रिय कार्यकरताओं को भी अवसर मिल सके और परिवारवाद पर रोक लगे और ल्ग नीचे चुन कर ऊपर तक पहुंचें .सभी पार्टियां चुनाव आयोग द्वाारा निर्धारित सदस्यता षुल्क के आधार पर सदस्य बनायें और उस सदस्यता धनराशी का सरकारी आडिट हो और चुनाव आयोग के माध्यम से सभी दलों की आडिट रिपोर्ट संसद में पेष की जाय ताकि देशवासी भी राजनैतिक पार्टियों की हकीकत से वाकिफ हो सकें . गांन्धी जी के अनुसार राजनीत को सहज और सादगीपूर्ण बनाया जाय ताकि आम आदमी भी राजनीत में अपनी सक्रिय भागीदारी कर सके . हर पार्टी का लिखित सिध्दान्त एवं संविधान हो और देश के लिए कार्यक्रम की रूपरेखा भी हो जो चुनाव आयोग के यहां पंजीकृत हो और किसी भी तरह के विचलन या उनके उल्लघन पर आयोग को कार्यवाही का अधिकार हो . सांसदनिधि और विधायकनिधि पूर्णरूप से समाप्त की जाय क्योंकि इसके दुरुपयोग के परिणाम हम रोज भोग रहे हैं . सांसदों के अनापसनाप वेतन और सुविधाएं उन्हें लालची और सामन्ती प्रवृत्ति का बनाती हैं जबकि सही मायनें में वे जनता के सेवक हैं पर उनका व्यवहार शासकों जैसा होता है . जनप्रतिनिधियों से सुरक्षाव्यवस्था तुरन्त हटा लेना चाहिए ताकि जनता और उनके बीच नजदीकियां विकसित हो सके जैसा कि आजादी के बाद के एक दो दसकों में एक पारस्परिक रिष्ता रहा है . लोकषाही को मजबूत और देश के लिए उपयोगी बनाने के लिए लोक का सषक्तीकरण बेहद जरूरी है . जनप्रतिनिधियों की जबाबदेही संसद और विधान सभाओं के साथ साथ जनता के प्रति भी होना चाहिए ताकि जनता उन्हे अपना सच्चा प्रतिनिधि महसूस कर सके . संसद और विधान सभाओं के प्रत्याशी अपने जन्म स्थान वाले चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़े . अन्य किसी चुनाव क्षेत्र से चुनाव लडना राजनीतिक बेईमानी है. और इसी प्रकार राज्य सभा के सदस्य को प्रधानमंत्री और विधान परिषद् के सदस्य को मुख्यमंत्री चुननें की पात्रता में ना रखा जाय . संसद और विधान सभाओं की की कार्यवाही सत्रों की मीटिंग्स की संख्या और बढ़ाई जानी चाहिए तथा नियमों में सुधार कर सभी बैठकों में सभी सदस्यों की उपस्थिति को अनिवार्य किया जाय . आखिर उसके लिए उन्हें सरकारी खजाने से खासी मोटी रकम भुगतान की जाती है जो जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है . संसद और विधान सभाओं का बहिश्कार तथा उनको अवरुध्द करने को गैर कानूनी बनाया जाय ताकि अधिक से अधिक काम को अंजाम दिया जा सके . कोशिश की जानी चाहिए कि सत्तापक्ष और विपक्ष एक सौहार्दपूर्ण ढंग से सकारात्मक दृश्टिकोण से सदन के संचालन में सहयोग करें आखिर वे सब भी तो देश के प्रति प्रतिबध्द है़ं . निराधार और मिथ्या आरोप - प्रत्यारोप और महज आलोचना के लिए आलोचना से बचा जाना चाहिए . हम दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ,हमें तो दुनियां का रोल माडल बनना चाहिए . संसद या विधान सभाओं में सदस्यों के योगदान तथा सामूहिकरूप से संसद और विधान सभाओं के योगदान का लेखाजोखा पटल पर पेश किया जाना चाहिए ताकि देश की जनता उनकी औकात आंक सके और चुनाव क्षेत्रों में जाने पर पूंछ सके कि फला मुद्दे पर आप चुप क्यों रहे या ऐसा बोलने के बजाय ऐसा क्यौं बोले क्योंकि आखिर वे हैं तो अपने मतदाताओं की ही आवाज .आज संसद बनाम सड़क की बहस छिड़ी है जो बेजह और बेबुनियाद है . संसद ,संसद है और सड़क यानी जनता ,जनता है . पर दोनों की सर्वोच्चता अपनी अपनी जगह है और सर्वोच्च्तताओं को टकराने की बजाय समन्वय और सहयोग से काम करने की जरूरत है . आखिर दोनों का केन्द्रक तो देश और् देशहित ही है . जब देश ही नहीं होगा तो दोनों का अस्तित्व भी नहीं होगा . आज संसद और विधान सभाओं में जिस तरह के लोग चुन कर आरहे हैं और स्वार्थपरिता में लिप्त होकर देश को दरकिनार कर रहे हैं ,सारा संकट उसी से खड़ा हुआ और उसी ने संसद और संसदीय राजनीत की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया है . जिससे पूरा राजनैतिक समाज मुंह चुरा रहा है . जब कोई स्वतःस्फूर्ति जनान्दोलन व्यवस्था परिवर्तन के लिए अंहिसकरूप में सड़कों पर उतर आता है तब संसद की दीवारें हिलने लगती हैं और उसे संसद विरोधी और संविधानविरोधी कहा जाने लगता है . जबकि वह आन्दोलन सिर्फ और सिर्फ भ्रष्ट और निरंकुश सत्ता के विरोध में एक सकारात्मक बदलाव के लिए खड़ा होता है . गान्धी जी बराबर कहते रहे कि असली लोकशाही संसद और विधान सभाओं से बाहर जनता के बीच रहती है और उसे मजबूत करने की जरूरत है ताकि संवैधानिक संस्थाओं को जबाबदेह , पारदर्शी और जनोन्मोख बनाया जा सके . और डा॰ लोहिया इसीलिए ताजिन्दगी जनान्दोलन की राजनीत करते रहे और महज एक बार संसद में चुनकर गये . आचार्य नरेन्द्र देव जैसे देश भक्त को चुनाव में कैसे मात दी जाती है किसी से छिपा नहीं है .
अमेरिका ,कनाडा और डेनमार्क ,स्वीडन ,स्विटजरलैंड , आस्ट्रेलिया , जापान तथा सिंगापुर आदि देषों से हमें सीखना चाहिए कि दुर्व्यावस्था को कैसे एक कारगर व्यवस्था में तब्दील किया जाय ना कि यह कह कर छुट्टी पा ली जाय कि सरकार के पास जादू की छड़ी नहीं है . चुनाव प्रक्रिया में राइट टू रिजेक्ट और राइट तू रिकाल के प्रावधानों के साथ साथ ऐसे प्रावधान भी किये जांय कि संसद के बाहर से भी जनता की आवाज सुनी जाय और उन्हें आउटसाइडर कहकर उपेक्षित या बहिष्कृत ना किया जाय . राश्ट्रीयव्यापी मुद्दों पर रिफरेंन्डम और प्रिलेगिस्लेटिव डिस्कोर्स की भी व्यवस्था का प्राविधान लोकशाही को मजबूत बनायेगा .इन सभी महत्व्पूर्ण मुद्दों पार राश्ट्रीय स्तर पर व्यापक बहस की जरूरत है .पर संसद और संसदीय राजनीत का चेहरा बदलने के लिए चुनाव सुधार समय की मांग है हमारी जरूरत भी .

Monday, 5 September 2011

व्यवस्था परिवर्तन बनाम सत्ता परिवर्तन

भगवान स्वरूप कटियार
हम ६२-६३ सलों से चुनाव के जरिए सिर्फ सत्ता परिवर्तन कर रहे हैं,जबकि समय का तकाजा है व्यवस्था परिवर्तन का . वैसे सत्ता परिवर्तन से भी व्यवस्था परिवर्तन हो सकता है बषर्ते सत्ता में बैठे लोगों के अन्दर व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा षक्ति ,प्रतिबद्धता और जनसरोकारों के प्रति ईमानदारी हो . हमारे ताजे राजनैतिक इतिहास में दो ऐसे उदाहरण दिखाई देते हैं जब व्यवस्था परिवर्तन की पहल की गयी और उन्हे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी . डा॰ अम्बेड्कर जब कानून मंत्री की हैसियत से हिन्दू कोड बिल संसद में लाये तो उसे स्वीकार नहीं किया गया और उन्होंने कानून मंत्री पद से स्तीफा दे दिया . हिन्दू कोड बिल हिन्दू समाज की स्त्रियों की सामाजिक - आर्थिक स्थिति सुधारने का बुनियादी समाधान था . जिसे बाद की सरकारों ने टुकड़ो-टुकड़ो में कमजोर तरह से उसके प्रविधानों को लागू किया . जनता से चुनी गयीं सत्ताएं जनता को अधिकार और सत्ता सौपने में बहुत डरतीं हैं . दूसरा उदाहरण है जब वी॰पी॰ सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिसें लागू करने का फैसला लिया ,जैसे भुचाल आ गया . क्या क्या नहीं सहा सामाजिक न्याय के उस महानायक ने ़ किसी के पास मंडल के विरोध में ठोस तर्क नहीं थे . दबी कुचली कौमों को उठाने का काम क्यों किया जाय वे तो सिर्फ षासित होने के लिए हैं .पर बिडम्बना देखिए कि कंमडलवादियों ने भी अपनी राजनीत का सबसे अधिक राजनीतीकरण किया जिसके तहत कल्याण सिंह, उमा भारती ,विनय कटियार ,गोपीनाथ मुन्डे जैसे नेता स्थापित हुए.यह अलग बात है कि कंमडलवादी उन्हें हजम नहीं कर पाये . आज जन लोकपाल कानून का मुद्दा भी व्यवस्था परिवर्तन का मुद्दा है जिसे कोई भी राजनैतिक दल हजम नहीं कर पा रहा है . वे सिर्फ चुनाव को ही लोक्तंत्र मानते है और उसे वहीं तक सीमित भी रखना चाहते हैं . जनता को मतदान का अधिकार देकर सरकार के जनता कए प्रति सारे दायित्व समाप्त हो जाते हैं . सरकार में बैठे लोग सोचते हैं कि संसद ही सर्वोपरि है . यह बात कानून पास कराने तक तो सच है ,उसके लिए तो संसद या विधायिका सर्वोपरि हो सकती है . पर जनता के द्वारा चुनी गयी संसद और उसके प्रतिनिधि संासद जनता से ऊपर कैसे हो सकती . लोकतंत्र में तो जनता और उसके सामूहिक हित ही सर्वोपरि होते हैं . इस तरह संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देना अंहकार है और इसी अंहकार के कारण सभी क्षेत्रों में भ्रश्टाचार फैला है .
लालू, मुलायम,और मायावती जब लोकतंत्र की दुहाई देते हुए कहते हैं कि यदि लोकतंत्र ना होता तो उनके जैसे लोगों को कभी सत्ता नसीब नहीं होती , पर उनसे लोकतंत्र को क्या मिला-भ्रश्टाचार और राजनीत का अपराधीकरण. क्या यही थे डा॰ अम्ब्रडकर और डा॰ लोहिया के आदर्ष और सपने . क्या लोकतंत्र का फलना फूलना भ्रश्टाचार का फलना फूलना है ,राजनीत का अपराधीकरण होना है. तो लानत है ऐसे लोकतंत्र पर और हम गुलाम बेहतर थे कमसेकम एक व्यवस्था तो थी और हम अफसोस कर लेते थे कि क्या करें हम परतंत्र थे . आज जरूरत है लोकषक्ति को मजबूत करने की क्योंकि लोकषक्ति ही लोकषाही की असली ताकत है और इसी लोकषक्ति से निरंकुष सत्ता की बांह मरोड़ी जा सक्ती है . सत्ता परिवर्तन को गांधी ने कभी आजादी नहीं माना . इसीलिए उन्होंने आजादी के बाद कंग्रेस को खत्म कर लोकसेवक संघ बनाने की बात कही थी . वे चाहते थे कुछ अच्छे लोग जनता के बीच रहें क्योंकि असली सत्ता तो जनता की है . जयप्रकाष नारायण भी लोकषक्ति मजबूत करने के लिए संघर्शरत रहे .जवाहरलाल नेहरू उन्हें उपप्रधानमंत्री बनाना चाहते थे पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया और ताजिन्दगी जनता के बीच जनता की लड़ाई लड़ते रहे़.
देष में एक प्रभावी और स्वायत्त लोकपाल देष में एक बुनियादी परिवर्तन कारगर उपाय है जिससे भले ही व्यवस्था पूरी तरह न बदले पर परिवर्तन की संभावनाओं का सषक्त मार्ग प्रषस्त हो सकता है और परिवतन के बहुत सारे दरवाजे खुल सकते हैं . वैसे व्यस्था में आमूल चूल परिवर्तन के लिए तो इस पूंजीवादी व्यवस्था के सारे ढांचे को ही ढहाना होगा और उसकी स्थान पर श्रम की सर्वोच्च सत्ता कायम करनी होगी . यही था हमारे क्रान्तिकारियों का सपना जिसके लिए उन्होंने षहादत दी . आखिर स्वयत्त और प्रभावी लोकपाल से डर कौन रहा है? भ्रश्टाचार से दुखी कौन है? आम आदमी ना कि भ्रश्टाचार में लिप्त सत्ता वर्ग और उसके कृपापाात्र .जिस समय देष में बहस होनी चाहिए कि कैसा लोकपाल चाहिए पर मुद्दे से भटकाने के लिए बहस की जा रही संसद की गरिमा पर , प्रधानमंत्री और न्यायपालिका की गरिमा और विष्वसनीयता पर . षायद वे भूल रहे हैं इन पवित्र संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और विष्वसनीयता को सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों ने ध्वस्त किया है जो उसकी दुहाई दे रही है.
संसद की गरिमा और प्रधानमंत्री तथा न्याय्ापालिका की विष्वसनीयता यदि आज बची होती तो षायद लोकपाल जैसी संस्था के बारे में सोचने की जरूरत ही ना पड़ती और उसे पुनः जीवित करने के ले ही एक स्वायत्त और प्रभावी लोकपाल संवैधानिक संस्था की जरूरत महसूस की जा रही ताकि अंहिसक तरीकों से देष को भ्रश्ट काले अंग्रेजों से मुक्त कराया जा सका . और इसके लिए यदि संविधान में संसोधन और धन की आवष्यकता है तो उससे गुरेज क्यों है . लोकपाल के गठन से भ्ररश्टाचार पर प्रभावी अंकुष लगेगा उससे देष को राजस्व की एक बड़ी धनराषि अर्जित होगी . इसी के साथ आम आदमी से जुड़े मुद्दे जैसे एक जैसी निषुल्क षिक्षा, चिकित्सा,न्याय और रोजगार व्यव्स्था के लिए संघर्श को भी आजादी की इस दूसरी लड़ाई से जोड़ने की जरूरत है़ ़ आज कोई भी राजनैतिक दल खुल कर अण्णा हजारे के मसौदे के साथ
खड़ा नहीं दिखता सिर्फ कुछ वामपंथी दलों के . सामाजिक न्याय के नेता जैसे रामविलास पासवन , मुलायम सिंह यादव ,मायावती के पैरों के नीचे की धरती ही खिसक गयी हो . गरीब किसान परिवार से आये इन नेताओं से बड़ी उम्मीदें थीं . डा॰ अम्बेडकर और डा॰ लोहिया के नाम पर ये सब एक बड़ी लानत हैं . सामाजिक न्याय के ये सब अपराधि हैं और जनता तथा इतिहास इन्हें कभी मांफ नहीं करेगा . आखिर गरीब घरों के इन नेताओं के पास अरबों रुपयों की सम्पत्ति आयी कहां से? ये सब देषद्रोही है और स्वाय्ात्त लोकपाल इन सबको जेल का रास्ता दिखायेगा . इसलिए लालू जी कहते हैं कि लोकपाल तो नेताओं पर अफ्सर बैठाने की साजिष है . नेता क्या कानून से ऊपर है लालू जी जो उसे घोटाले पर घोटाले करने की छूट देदी जाय .
समझनेकी पहली बात यह है कि अण्णा हजारे का प्रस्तावित लोकपाल कानून कोई व्यक्ति नहीं एक पूरी संवैधानिक संस्था है . इसमें जांच विभाग और अदालत में मुकदमा चलाने के लिए अभियोजन विभाग और इन सबकी निगरानी रखने के लिए अध्यक्ष सहित ग्यारह सदस्यों का पैनल होगा . यह व्यवस्था केन्द्र सरकार के ४॰ लाख कर्मचारियों के लिए होगी और इसी तर्ज पर हर एक राज्य में लोकायुक्त संस्था होगी . देष का कोई भी नागरिक लोकपाल या लोकायुक्त के पास केन्द्र या राज्य के किसी कर्मचारी या प्रतिनिधि के भ्रश्टाचार की षिकायत लेकर जा सकेगा . पूरी पारदर्षिता से समयबध्द ढंग से जांच कर संम्धित को दंडित किया जायेगा . अगर जांच प्रधनमंत्री , जजों और सांसदों के विरुध्द है तो जांच षुरू होने से पहले लोकपाल की सात सदस्यीय पीठ जिस्में विधिक पृश्ठभूमि के सदस्य होंगे तय करें गे कि जाांच होनी चाहिए या नहीं. . लोकपाल सरकार के प्रति नहीं बल्कि जनता के प्रति जबाबदेह होगी इसलिए लोकपाल को किसी की भी षिकायत पर सर्वोच्च न्यायालय के आधाार पर दंडित किया जा सकेगा . देष आज बेहद नाजुक दौर में है .देष के रक्षक ही देष के दुष्मन हैं .यह लड़ाई जटिल और कठिन पर लड़नी तो है और लड़ी भी जायेगी .

प्रयोगधर्मी फिल्मकार मणि कौल का जाना

( स्मृति षेश )
भगवान स्वरूप कटियार
सिनेमा के जरिये रूढ़ियों का विरोध और नयेपन का अह्सास कराने वाले प्रयोगधर्मी फिल्मकार मणि कौल का जाना पूरे संस्कृति जगत के लिए एक गहरा धक्का है. महज ६६ वर्श की उम्र में मणि कौल का निधन प्रगतिषील सिनेमा आन्दोलन को एक जबरजस्त झटका है.उन्होंने भारतीय सिनेमा को बेहतरीन फिल्में दीं .उन्होंने लीक पर चलने वाले सिनेमा से हट कर एक अलग पहचान बनाई.राजस्थान के जोधपुर के एक कष्मीरी परिवार में जन्में कौल ने अपने फिल्मी करियर की षुरुआत १९६९ में ”उसकी रोटी “ फिल्म से की जिसे १९७१ में बेहतरीन फिल्म की श्रेणी का फिल्मफेयर क्रिटिक पुरस्कार मिला. बाद में यही पुरस्कार उनकी तीन अन्य फिल्मों १९७२ में ” असाढ़ का एक दिन “ ,१९७४ में “दुविधा “ और १९७३ में ईडियट को मिला . “ दुविधा“ के लिए उन्हें सर्वश्रेश्ठ निर्देषक के राश्ट्रीय पुरस्कार् से भी सम्मानित किया गया. १९८९ में कौल को उनके वृत्तचित्र ” सिध्देष्वरी“ के लिए रार्श्ट्रीय पुरस्कार भी मिला . पुणे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (पिएफटीआईआ्ई) से उन्होंने ने १९६६ में स्नातक किया .१९७१ में कौल बर्लिन अन्तराश्ट्रीय फिल्मफेस्टीवल के जूरी सदस्य भी रहे जो भारतीय फिल्म जगत के लिए गर्व कि बात थी . जाने माने फिल्म निर्देषक महेष कौल के भतीजे मणि कौल ने पूना फिल्म इन्स्टीटयूट में पढ़ाने के अलावा वर्श २॰॰१-२॰॰२ में हावर्ड विष्वविद्यालय में विजिटिंग लेक्चरर भी रहे . उन्होंने “घासीराम कोतवाल“ ,“ सतह से उठता आदमी“, “ ध्र्ु्रवपद “,“नौकर की कमीज“ ,“मंकीज रेनकौट “ बोझ ,नजर जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनाकर न सिर्फ भाारीय सिनेमा बल्कि विष्व सिनेमा को समृध्द किया . सिनेमा के इतिहास में मणि कौल की एक अपनी पहचान है. उन्होंने सिनेमा के वैचारिक स्तर को बढ़ाया . भारतीय सिनेमा में वे नयी लहर के पथप्रदर्षक थे और उन्होंने सिनेमा में नये भावों और नयी भाशा की खोज की . मौलिक सर्जक की तरह मणि कौल का काम बिल्कुल अपनी तरह का है. उनके सिनेमा में साहित्य, कविता और चित्रकला समेत अनेक कला माध्यमों का विलक्षण समिश्रण है . उनकी सिध्देष्वरी और दुविधा जैसी फिल्मों में विविध कलात्मक मिश्रण साफ झलकता है .
मणि कौल जितने बड़े फिल्मकार थे उतने ही बड़े धु्रवपद षिक्षक और धु्रवपद गयक भी थे .सिनेमा की अनुभूत उनके लिए सबसे जरूरी चीज थी . इसलिए हर स्तर पर वे प्रयोग करते रहे . कथा, दृष्य ,संवाद , ध्वनि , संगीत आदि सभी पक्षों पर उनकी बारीक नजर रहती थी . पर कभी भी उन्होंने इनमें से किसी को लेकर पूर्व धारणा या तय रूप रेखा के आधार पर उन्होंने कभी फिल्मांकन नहीं किया . वे मुक्त भाव से द्दष्यों को कैद करते और ऐसे संयोगो को घटित होने देते जिनके जरिए अनुभूत और अधिक प्रगाढ़ बनाया जा सके . ऐसे में कहानी उनके लिए बाधा नहीं बनती . बगैर किसी संवाद के लम्बे द्दष्य , बीच में कहीं कोई सिर्फ आवाज भर . इस तरह् उनकी फिल्मों में एक मामूली आवाज भी कथन की षक्ल अख्तियार कर लेती . द्दष्य में जितना महत्व दो पात्रों को देते उतना ही महत्व खुली जगहों को भी . यही बजह थी की वे कैमरामैन से कहते कि द्दष्य को परदे पर देखते हुए नहीं बल्कि बन्द आंखों से फिल्मांकन करें.ें इसमें पा्त्रों और वस्तुओं की स्थितियां जो भी रहें वे परवाह नहीं करते थे . उन्हें उनके स्वाभाविकरूप में दर्षानए के पक्षधर रहेे . इस तरह एक एक भंगिमा और मामूली हरकतों पर भी उनकी नजर रह्ती थी . कैमरे को पात्रों के चेहरे पर केन्द्रित करने के बजाय कौल उनके हॉथ,उनकी उगलियों ,उनके सिर ,पैर पर आदि की स्थित पर ध्यान देते . इस तरह समान्तर सिनेमा के फिल्म निर्माताओं में मणि कौल ज्यादा प्रयोगधर्मी थे . वे कहते थे कि फिल्म और वृत्तचित्र में बहुत बारीक फर्क है इसलिए फिल्म को भी वृत्तचित्र की तरह मुक्तभाव से फिल्मांकित किया जाना चाहिया . उनकी ज्यादातर फिल्मों की विशय वस्तु हिन्दी की किसी साहित्यिक रचना पर आधारित है . पर उानकी रुचि साहित्य तक सीमित नहीं थी . कला के विविध पक्षों को उन्होंने बड़े मनोयोग से विविध रंगों में उकेरा है .
“ सिध्देष्वरी“ में कविता ,“धु्रवपद“ में संगीत ,“दुविधा“ में चित्रकला, “सतह से उठता आदमी “ में वास्तुषिल्प को महत्व देना इसका प्रमाण है . वे कई बार द्दध्य के रूप में किसी चित्र या किसी षिल्प को प्रस्तुत कर प्रभाव पैदा करते थे . उनमें गजब का खुलापन था. वे वर्जनाओं और बन्धनों के षख्त खिलाफ थे . वे अभिनय करने वालों को खुला छोड़ देते थे ताकि किरदार अपने तरीके से जी सके . इसी तरह से संपादन के मामले में वे कोई रेखा नहीं खीचते थे . वे मानते थे कि चीजें विचार से षुरू ना हों बल्कि विचार तक पहुचें . वे ना तो अतिनाटकीयता में विष्वास रखते थे और ना ही बेवजह की चुप्पी में . जहां उन्हें प्रभावी अनिभूति नजर आती वहीं वे द्दष्य को पूर्ण मान लेते . अनायासपन उन्हें पसंद था .इस तरह् उनकी एक फिल्म में कई फिल्मों का आभास पाया जा सकता है . जिस दौर में उन्होंने फिल्म जगत में कदम रखा उस समय तक सिनेमा पैस कमाने का एक षक्तिषाली स्रोत बन गया था पर मणि कौल सिनेमा को व्यवसाय की बजाय कला के रूप में अपनाया और कुछ महत्वपूर्ण और मूल्यवान देने के लिए जोखिम उठाते रहे . वे हमेषा ऐसे दर्षकों को पैदा करने की जद्दोजहद करते रहे जिनके लिए सिनेमा में षिल्प और अनुभूति मायने रखती हो . इस तरह मृणालसेन और कुमार षाहनी से कदम से कदम मिलाते हुए मणि कौल ने नई धारा के सिनेमा को निरंतर आगे बढा़ने का प्रयास किया . उनका जाना वास्तव में कलात्मक मूल्यों की चाह रखने वलों के लिए एक गहरे सदमें की घड़ी है . मणि कौल अभी तक भारतीय सिनेमा के लिविंग लिजेन्ड थे और अब ऐतिहासिक किवदन्ति बन गये . सिनेमा जगत उनका सदैव ऋणि रहेगा . उनकी प्रगतिषील परम्परा को सतत आगे बढ़ाना ही उनकी प्रति सच्ची श्रध्दांजलि होगी .

कटघरे में संसदीय राजनीत

भगवान स्वरूप कटियार
संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा में देषवासियों ने मिलजुल कर बुना था सबकी खुषहाली का सपना . हमारी संसद देषवासियों के सपनों और आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी जिसका परिणाम है कि देष की संसदीय राजनीत जनता की अदालत के कटघरे में खड़ी है . इसके लिए कमोवेष देष के सभी राजनैतिक दल जिम्मेदार हैं . संसद बनती है सांसदों से . अगर संासदों को का चरित्र और चेहरा बदल जाय तो उसका प्रभाव संसद के कार्यकलापों और संसद की गरिमा पर पड़ना स्वाभाविक है .आजादी के बाद के षुरू के वर्शों में जो लोग संसद में चुन कर आये उनकी पृश्ठभूमि स्वतंत्रता संग्राम की थी . बाद के वर्शों में राजनीत एक लाभप्रद पेषा बन गयी जिसमें अधिकांष लोग सत्ता-सुख भोगने और कम समय में अधिक धन कमाने के लिए आने लगे. राजनीत करना और राजनीत चलाना अधिकाधिक मंहगा होता गया . चुनाव में काला धन का इस्तेमाल कर सफेद किया जाने लगा . एक लोक सभा चुनाव लड़ने के लिए ५करोड़ से १॰करोड़ रुपये खर्च होते हैं जिसे सफेद धन से लड़ा जाना नामुमकिन है .हालाकि सभी लोग भ्रश्ट नहीं है पर परिस्थितियां उन्हें भ्रश्ट बनाती हैं . वर्तमान लोकसभा में ५४३ सांसदों में लगभग ३॰॰ करोड़पति हैं और लगभग १५॰ से १७५ सदस्य अपराधिक पृश्ठभूमि के है़ं . एक समय था जब संसद में राश्ट्रीय- अन्तर्राश्ट्रीय विशयों पर सारगर्भित बहस होती थी जबकि आजकल ज्यादातर बहस क्षेत्रीय मुद्दों पर होती है . कालान्तर में संसदीय राजनीत निरंतर संकुचित होती चली गयी.
संसद की कार्यवाही पर प्रतिदिन ६.३५ करोड़ रुपये खर्च होते हैं . वर्श २॰१॰ के षीतकालीन सत्र में संसद के पूरी तरह से ठप्प रहने के कारण सरकारी खजाने को करीब १५॰ करोड़ रुपये का नुक्सान हुआ . आमतौर पर संसद के सत्र में १५-२॰ विधेयक पारित किये जाते हैं पर उस षीतकालीन सत्र में मात्र ५ विधेयक पास किये जा सके . संसद में सुचारु रूप से सत्र ना चल सकने के कारण संसद में८१ बिल लम्बित हैं . जरा याद करे जब लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सांसदों के व्यहार पर अपना गुस्सा इजहार करते हुए कहा था कि सांसद देष क ेप्रति अपने गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण एक पैसा पाने के भी हकदार नहीं हैं.आज जब देष की जनता ने सड़क पर उतर कर देष में भ्रश्टाचार को समाप्त करने के लिए एक कारगर् जनलोकपाल बिल लोकसभा में पारित कराने क ेलिए बीड़ा उठाया तो देष की पूरी राजनीत बदहवाष होती नजर आयी और संासद् संसद की गरिमा एवं संप्रभुता का ढोल पीटने लगे . अगर संसद का पुराना चरित्र और चेहरा वापस लाना है तो जनलोकपाल की तरह एक व्यापक चुनाव सुधार बिल पारित कराना होगा जो संसद में अपराधिक और भ्रश्ट पृवित्त के लोगों को रोके और अनिवार्य मतदान कराकर छù बहुमत पर अकुंष लगाये . सीधा सा सवाल है कि जनता जिन सांसदों को चुनकर भेजती है वे जनता के लिए काम करने के बजाय अपने स्वार्थगत लाभों में लिप्त होकर सांसदनिधि और भत्ते बढ़ाने के अलावा सवाल पूछने के लिए धन लेने जैसे दुश्कृत्यों में उलझे रहते हैं और सत्ता के लिए गठजोड़.की राजनीत करते हैं . भारतीय राजनीत में इस समय सिविल सोसाइटी बनाम संसद की बहस गूंज रही है . सच तो यह है कि देष की पूरी राजनीत जनता की अदालत के कटघरे में खड़ी है और उसके पास जनता के सवालों के जबाब नहीं है . एक बड़ा सवाल यह है कि यदि चुनी हुई संसद भ्रश्टाचार के साथ खडी़ होकर भ्रश्टाचार का बचाव करने लगे तो क्या देष की जनता को चुप बैठा रहना चाहिए जिसने संविधान और संसद दोनों बनाये हैं ? हम सब जानते और रोज देखते हैं कि संविधान और संसद की गरिमा की दुहाई देने वाले लालू और अमर सिंह जैसे तमाम सांसदों ने संविधान और संसद को रसातल में पहुंचा दिया है . सर्वदलीय बैठक में कुछ सांसदों को छोड़ कर अधिकांष ने जन लोकपाल बिल के प्रति जो ढुलमुल रुख अख्तियार करते हुए भ्रश्टाचार के मुद्दे को जिस तरह डायलूट करने की कोषिष की उससे सरकार और पूरी संसद अपनी नियत को लेकर कट्घरे मैं खड़ी है . यह संसद जो एक संवैधानिक संस्था है ,जनता के लिए उसके हितों के रास्ते में एक पत्थर बन कर खड़ी है . इसमें संसद का नहीं अधिकांष भ्रश्ट सांसदों का दोश है . एक तरफ सरकार कहती है कि भ्रश्टाचार समाप्त करने के लिए हमारे पास जादू की छड़ी नहीं है और जब् जनता एक मजबूत जन लोकपाल के रूप जदू की छड़ी देती है तब पूरी संसद उससे दूर भागती है . तभी अन्ना जनता की जमीनी भाशा में कहते हैं कि देष के ये काले अंग्रेज लोकतंत्र नहीं लूटतंत्र चला रहे हैं ,हुकुमषाही चला रहे हैं . गांधी जी और डा॰ लोहिया नेताओं के इस चरित्र को भांप गये थे और इसीलिए उन्होंने हमेषा संसद के बाहर जनता को जगाये रखने लिए आगाह किया था . लोहिया का तो पूरा जीवन ही संसद से बाहर की राजनीत में ही बीता ,सिर्फ एकबार संसद में चुन कर गये थे .
तथाकथित सिविल सोसाइटी ने अन्ना के नेतृत्व में भृश्टाचार के खिलाफ पूरे देष को एकजुट कर दिया है और इसे वे आजादी की दूसरी लड़ाई कहते हैं पर फिर भी सरकार और संसद के कान में जूं नहीं रेंग रही है . देष की जनता गैर संसदीय रास्ते का इस्तेमाल करते हुए व्यवस्था परिवर्तन करना चाहती है . हाल ही में मिस्र , ट्यूनीषिया , लीबिया सीरिया आदि देषों में इसी तरह स्वतः स्फूर्ति जनान्दोलनों ने सता के तख्ते पलट दिये और हिंसात्मक घटनाएं भी घटी . पर अन्ना का पूरा आन्दोलन अंहिसात्मक और व्यवस्था परिवर्तन का है ,सत्ता परिवर्तन का नहीं है . अन्ना के इस आन्दोलन ने जहां एक ओर जनता में उम्मीद और आकांक्षाएं जगायीं हैं वहीं राजनेताओं में भय जगाया है . राजनेता यह समझ रहे हैं कि यदि एक बार जनान्दोलन की आवाज को संसद में स्वीकृत मिल गयी तो चुनावी राजनीत निश्फल हो जायेगी . यह साफ दिखाई देता है कि गठजोड़ की राजनीत ने विचारधारा और मूल्यों की राजनीत को पीछे धकेल दिया है . भ्रश्टाचार का हाल यह है कि वह पूरे देष के लिए कैंसर बन गया है ्जिसके लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष लगभग एक जैसी भूमिका निभा रहे हैं क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे हैं और दोनों के दामन दागदार हैं . आंकड़ों के अनुसार ३१५ अरब ्रुपये हर साल्् भारतीयों को रिष्वत के रूप् में देने पड़ते हैं . १॰ खरब रुपये रिष्वत सालाना का टर्न ओवर पूरी दुनियां में है . भारतीय न्यायव्यवस्था में २३६॰ करोड़ की रिष्वत दी जाती है . एक साल में १॰॰॰ से ज्यादा भ्रश्टाचारियों को सजा नहीं मिल पाती है वर्तमान कानून से .लगभग १८॰॰ भ्रश्टाचार के मामले न्यायालय में लम्बित हैं . मात्र ३॰ फीसदी भ्रश्टाचार के मामले ही दर्ज हो पाते हैं और मात्र ५साल की सजा ही मिलती है भ्रश्टाचारी को . भारत सरकार द्वारा सब्सिडी दिये जाने वाले मिट्टी के तेल का ४॰ प्रतिषत हिस्सा ही लोगो तक पहुंचता है जबकि इस सब्सिडी के ९॰ अरब रुपये तेल माफियाओं को प्रति साल कमाई के रूप में जाते हैं .करप्सन वाच डाग और ग्लोबल फाइनेंसियल इन्टीग्रिटी के मुताबिक १९४८ से २॰॰८ के बीच २॰,७९॰॰॰ करोड़ रुपये अवैध तरीके से भारत के बाहर गये . स्विस बैंकिंग एसोसिएसन ने २॰॰८ की रिपोर्ट में यह खुलासा किया था कि भारतीयों का ८,५॰,९५॰ करोड़ रुपया ( १८९१ अरब अमेरिकी डालर ) जमा था . २ जी स्पेक्ट्रम के १,७६॰॰॰ करोड़ रुपये के घोटाले से ८॰॰॰ सोलर प्लान्ट चलाये जा सकते हैं . ट्रांन्सपेरेन्सी इन्टरनेषनल ने करप्सन परसैप्सन इन्डैक्स में ८७वें पायदान पर रखा है. अकेले सी बी आई के पास९९१॰ मामले ऐसे पड़ें है़ जिनकी जांच हो गयी है पर अभी तक किसी को सजा नहीं हुई है .एक अनुमान के मुताबिक महज १॰ घोटालेबाज २५ साल में ३॰ लाख करोड़ रुपये डकार गये . वर्श १९६८ में चौथी लोक सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने लोकपाल बिधेयक पेष किया था . तब से लेकर १९७७, १९८५ ,१९८९, १९९६ ,१९९८, २॰॰१, २॰॰५ ,२॰॰८ और अब २॰११ में १॰वीं बार पेष किया गया है पर देष की यह महान संसद इसे पारित कराने की इच्छाषक्ति नहीं जुटा सकी और ना आज ही हिम्मत दिखा पा रही है . हांकाग हमारे सामने एक ज्वलन्त उदहरण है जहां १९७४ में इंडिपेन्डेन्ट कमीसन अगेंस्ट करप्सन( आई सी एसी ) बना कर करप्सन से निजात पाया गया . हाकांग आज ईमानदारी और पारदर्षिता क ेक्षेत्र में ट्रांस्पैरेंसी इन्टर्नेषनल की वैष्विक सूची में १३ पायेदान पर है . हमारे देष में यथास्थितवादी भ्रश्ट नेता जो यह कहते हैं कि भ्रश्टाचार विकास के साथ जुड़ा अपरिहार्य हैै जिससे निजात नहीं पाया जा सकता है उनके लिए हांकांग और सिंगापुर जैसे देष बतौर मिषाल हैं . हाकांग का यह आई सी एसी नगरपालिका के छोटे कर्मचारी से लेकर जजों , सांसदों , मंत्रियों ,के खिलाफ जांच करने के लिए अधिकृत है जिसके लिए उसे किसी की इजाजत की जरूरत नहीं है . वर्श १९७३ में हांकांग के एक पुलिस प्रमुख पीटर गोडबर् द्वारा ६लाख डालर के भ्रश्टाचार से इसकी षुरुआत हुई जो घोटाला कर विदेष भाग गया था .
दुनियां के तमाम देषों में प्रि लेगिस्लेटिव डिस्कोर्स के जरिये कानून बनाने और कानून में संसोधन करने की स्वस्थ परम्परा है जिसकी षुरुआत यदि भारत में भी इस जन लोकपाल बिल के जरिये होती है तो हमारे लोकतंत्र को ताकत मिलेगी . कानून बनाने और देष चलाने में में जनता की सीधी भागेदारी की जनता की मांग जायज और लोकतांत्रिक है पर देष की भ्रश्ट राजनीत लोकषक्ति को लगातार नकार रही है जो लोकतंत्र और देष दोनों के लिए खतरनाक संकेत है .

व्यवस्था परिवर्तन बनाम चुनावी राजनीत

भगवान स्वरूप कटियार
मनुश्य हमेषा से बेहतर समाज और बेहतर सभ्यता के निर्माण और उसकी बेहतर आधार संरचना का हामी रहा है और उसके लिए निरंतर संघर्शरत भी रहा है . उसने जो कुछ गढ़ा और रचा ,कालान्तर में उसे ध्वस्त और नश्ट कर उससे बेहतर रचा और गढ़ा . यह प्रक्रिया आज भी जारी है और यही उसकी मुक्ति की आकांक्षा और पूर्णता प्राप्त करने की इच्छा का प्रतीक है . उसने जिन जीवन मूल्यों को जितनी सिद्दत से गढ़ा और रचा , वक़्त आने पर उन्हें उतनी सिद्दत से तोड़ा भी . दुनिया का पूरा इतिहास इसी प्रक्रिया की महागाथा है.हम जब ऐसा कर रहे होते हैं तब भी एक वर्ग इस ध्वस्तीकरण के विरुध्द खड़ा होकर उसे बचाने की कोषिष कर रहा होता है. जब साम्राज्यवाद की जड़ें दुनियां से उखाड़ी जारही थी तब भी उसे बचाने की हायतोबा मची थी . हर क्रान्ति के उद्देष्य ही उसकी विचारधारा बन जाते हैं और उनसे उसकी सैध्दांतिकी भी जन्म लेती है . फ्रांसीसी क्रान्ति निरंकुष राजतंत्र के खिलाफ समानता ,स्वतंत्रता और बन्धुत्व के उद्देष्य और आदर्ष लेकर घटित हुई . भले ही उसके आदर्ष पूर्ण रूप से धरती पर अभी तक फलित ना हुए हों पर जो हमें पसन्द नहीं था या जो हमारी सामूहिक खुषहाली के खिलाफ था उसे खत्म कर लोकतंत्रात्मक राजव्यवस्था का विकल्प स्थापित किया तबसे उसकी खामियों के हम विरुध्द निरंतर लड़ते आरहे है़ं . अन्ना के नेतृत्व में भ्रश्टाचार के विरुध्द उभरा यह जनान्दोलन उसी ओर इसारा करता है और इसे उसी सन्दर्भ में देखे जाने की जरूरत है . आजादी के पूरे लगभग २॰॰ वर्श के आन्दोलन में तमाम विचारधाराओं के बाबजूद देष की स्वतंत्रता के राश्ट्रीय मुद्दे पर सारा देष एकजुट और एकताबध्द होकर कांग्रेस के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन अपने लक्ष्य प्राप्त तक चलाता रहा .
अन्ना के आन्दोलन के भ्रश्टाचार के मुद्दे से किसी को असहमत नहीं है ना सरकार को और ना ही राजनेताओं को पर फिर भी विचारधारा और आन्दोलनों के संचालकों पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं . यह कैसी बिडंबना है जो कि संसदीय राजनीत और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि संसद और विधान सभाओं में बैठ कर जनता के हितों के साथ पूरे ६२ साल तक नाइंसाफी करते रहे ,संसद में बैठ कर असंसदीय जनविरोधी कारनामें करते रहे , देष को लूट कर अपना घर भरते रहे और देष को कंगाल कर अमीर बन कर काला धन विदेषों में जमा करते रहे तब देष की महान संसद की ना तो गरिमा आहत हुई और ना ही संवैधानिक नैतिकता और आचरण का उल्लघंन हुआ पर आज जब जनता अपने भ्रश्ट जनप्रतिनिधियों की आंख में उंगली डालकर अपने हकों और उनकी जिम्मेदारियों की याद दिला रही है और गला फाड़ कर पूरे सबूतों के साथ यह दावा कर रही कि सिर्फ तुमने और तुमने इस देष को बर्बादी के रसातल में पहुंचाया है जो कभी सोने की चिड़िया कहलाता था , तो संसद की दीवारों के पाये हिलने लगे और संविधान की पवित्रता पर आंच आने लगी . यह देष , इसकी संसद और संविधान उतना ही जनता का है जितना राजनेता इसे अपना समझते हैं बल्कि कई मायने में जनता का इन पर ज्यादा हक है क्योंकि जनता का खून पसीना ही इन सबकी बुनियाद में है. आज के दौर का सबसे बड़ा सवाल है कि यदि चुनी हुई संसद और विधान सभाएं तथा सरकारें जन विरोधी रुख अख्तियार करलें तो जनता को क्या करना चाहिए? एक बार मतदान करके वह ५ साल इंतजार करे और ५ साल बाद भी सत्ता परिवर्तन के नाम पर सिर्फ चेहरे बद्ले और कुछ ना बदले. ऐसे बदलाव से जनता को क्या हासिल होगा और अभी तक क्या हासिल हुआ , यह सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय विशय है . आज देष की पूरी राजनीत के लिए आत्ममंथन का दौर है कि आखिर जनता को यही सब झेलना था तो अंग्रेज क्या बुरे थे . जब अन्ना अपनी जमीनी भाशा में कहते हैं कि इन काले अंग्रेजों ने देष के षहीदों के बलिदान को भुला दिया और देष को लूट कर मिट्टी मे मिला दिया तब लालू प्रसाद जैसे नेता कहते हैं कि अन्ना को मेरे खिलाफ बोलने का किसने अधिकार दिया ,इनको किसने चुना आदि ?जनता द्वारा चुने हुए लोग जब जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी भुलाकर अपनी जबाबदेही से मुकरने लगते हैं तब जनता एकजुट संगठित होकर जनान्दोलन का रूप लेती है . जाति -धर्म में बंटे भारत जैसे देष ऐसा बहुत कम होता है और जब होता है तो उसके मायने होते हैं और असर भी . आन्दोलन का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण और संवेदनषील हो जाता है कि वह जनक्रोष और जनाकाक्षाओं की अभिव्यक्ति का सषक्त माध्यम बन जाता है . तब सारी विचारधाराएं और सिध्दान्त बेमानी लगने लगते हैं और आन्दोलन का मुद्दा ही विचारधारा की षक्ल लेलेता है . श्रीमती इन्दिरा गान्धी के खिलाफ चाहे जे॰पी॰ मूवमेन्ट हो या वी॰पी॰ सिंह का सोसल जस्टिस मूवमेन्ट ये सब स्वयं विचारधारा बन गये थे .
भ्रश्टाचार को लेकर अन्ना के नेतृत्व में उभरा अहिंसक जनान्दोलन की ध्वनि से साफ प्रकट होता है कि जनता व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन चाहती .वह अपने दुर्भाग्य या भाग्य के नाम पर दुर्व्याव्स्था को अब ढोना नहीं चाहती है. जनता के पास अपनी अपेक्षित जनाकांक्षाओं के अनुसार कल्पित व्यवस्था का पूरा खाका भी है और एजेन्डा भी.वह नेताओं के भरोसे अपने भाग्य को नहीं छोड़ना चाहती क्योंकि ६२ साल के दुनियां के सबसे बड़े परिपक्व लोकतंत्र को इतनी तमीज आगयी है कि वह अपनी जरूरत के कानून के विधेयक जनलोकपाल के रूप में पेष कर सकता है . जनता को अपने संविधान , अपनी संसद और व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका से कोई षिकायत नहीं है . षिकायत है तो सिर्फ इसमें बैठे भ्रश्ट लोगों से जिनके खिलाफ जनाक्रोष दिल्ली की संसद और सड़कों से लेकर पूरे देष की सड़कों पर दिखाई दिया .जनता अपनी संसद अपनी व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका का चेहरा बदलना चाहती है . वह चाहती है संसद में स्वच्च छवि के ईमानदार लोग पहुंचे और लोग जितने जिम्मेदार पदों पर हों उनकी उतनी ही जनता के प्रति जबाबदेही भी बने . यह कार्य चुनाव सुधारों तथा संसद के सत्रों के संचालन में कड़े और कारगर नियमों को बना कर किया जा सकता है . संसद की एक दिन की कार्यवाही पर प्रति दिन ६ करोड़ रुपये से अधिक खर्च होता जो जनता की घाड़ी कमाई का पैसा है . हम तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं , हमारी संसद को तो दुनियां की संसदीय व्यवस्था का रोलमाडल बनना चाहिए . पर होता ठीक इसके उलटा है . सीनिअर सांसद हमारी नयी पीढ़ी के आदर्ष नहीं बन पा रहे हैं . संसद के सत्रों में पूरे समय बैठना अनिवार्य किया जाय. लोग बोले भी और सुने भी . पूरी संसद देष की संसद के रूप संकुचित राजनैतिक हितों से ऊपर उठ कर व्यापक जनहितों के लिए काम करे . केवल मेजें थपथपा कर भत्ते और सांसदनिधि बढ़वाने की भूमिका में ही ना रहें . संसद और विधान सभाओं में गंभीर और सारगर्भित बातचीत हो जनता की सहमत से अच्छे कानून बने .देष के किसी भी कोने में अव्यवस्था हो संसद की निगाह वहां तक पहुंचे और सरकार को उसके निराकरण की हिदायत दे . संसद को देष में चल रही दोहरी षिक्षा व्यवस्था को समाप्त कर गरीब अमीर के लिए एक जैसी समान षिक्षा व्यवस्था कायम करने की पहल करने की अगुवाई करनी चाहिऐ . निजी षिक्षण संस्थाएं व्यवसायिक अड्डे बन गयी है और चिकित्सा व्यवस्था भी गरीब अमीर दो खेमों में बंटी है इसे भी समाप्त करना होगा .मनरेगा की जगह राइट टू इम्प्ल्वायमेन्ट तथा एन एह आर एम की जगह राइट टू हैल्थ जैसे कानून लागू किये जांय तथा धन की कमी की पूर्ति विदेषों में जमंा काले धन की वापसी और भ्रश्टाचार समाप्त कर की जाय. इस तरह एक जनोन्मुख विकास माडल देष में लागू किया जाय जिससे भय भूख भ्रश्टाचार और अपराध अन्याय अत्याचार समाप्त हो सके और कर्जमुक्त आत्मनिर्भर देष का निर्माण हो सके . ऐसा ही सपना इस आन्दोलन की कोख में पल रहा है जिसके फलित होने का इंतजार इस देष और इस देष की महान जनता को है .