अन्याय के प्रतिरोध में खड़ा एक जन कवि “रमाशंकर
विद्रोही
भगवान स्वरूप
कटियार
जब भी किसी /गरीब
आदमी का /अपमान करती है /यह तुम्हारी दुनियाँ / तो मेरा जी करता है /कि मैं इस दुनियाँ
को उठा कर पटक दूँ /इसका गूदा-गूदा छीट जाये / मजाक बना रखा है / तुमने आदमी की
आबरू को | ........ ये हैं जन कवि रमाशंकर विद्रोही जो बिना किसी लाग-लपेट के
गरीबों और मेहनतकशों के तरफदारी में बोलते हैं | विद्रोही का कहना है कि वे जनता
के हुक्म से कविताएँ बुनते हैं | कलम और कागज से तो कबीर की तरह जैसे उनकी रंजिश
है | जे एन यू में प्रवेश के समय सेमिनार में लिखित परचा प्रस्तुत करने पर अपना
प्रतिरोध दर्ज कराते हुए उनहोंने कहा कि परचा प्रस्तुत नहीं करेंगे उसकी जगह सीधे
वक्तव्य देंगे | पर यह नियम के विरुध्द था जिसके कारण उनको एम ए एडमीशन तो नहीं
मिल सका पर वे जे एन यू के परिवेश और कैम्पस में इस तरह रच बस गये कि लोग अब जे एन
यू का विद्रोही की जगह विद्रोही की जे एन यू कह कर बुलाते हैं | उस दिन से विद्रोही
ने कागज और कलम नहीं छुआ| पर जे एन यू के नोटिस बोर्डों पर विद्रोही के फोटो और
कविताएँ इस तरह मिल जाएँगी मानों की कोई नई नोटिस हो | वे अपने को जे एन यू का
नागरिक कहते थे और जे एन यू भी अपने लाडले
कवि से बेहद मोहब्बत करती थी | उनके निधन से जे एन यू में उपजा शोक और उनकी अन्तिम
यात्रा में सड़कों पर उमड़ी भीड़ उनकी मकबूलियत की हकीकत बयां करती है | उनके खुद के
शब्दों में विद्रोही एक तगड़ा कवि था |
गरीब – अमीर , न्याय –अन्याय की इन दो
दुनियाओं से अदावत और उनसे टकराने एवं संघर्ष करने का प्रखर स्वर उनकी कविताओं में
साफ झलकता हैं | यह फक्कड़ और फकीराना अंदाज में बेख़ौफ़ जीने वाला कवि दिल्ली में
अन्याय और शोषण के प्रतिरोध के हर जुलुस और संघर्ष में हाजिर मिलता था खास कर
युवाओं और छात्रों के आन्दोलनों में | उनकी कविता इतिहास , मिथ और वर्तमान सबसे निरंतर बहस करती | मोहन जोदड़ों की
महान सभ्यता के विध्वंश से लेकर आज के बर्वर और रर्क्त पिपाशु अमेरिकन
साम्राज्यवाद तक से उनकी अदावत है | विद्रोही जी ने जान बूझ कर सिर्फ वर्तमान ही
नहीं बल्कि पूरे मनुष्य के इतिहास को अपने कविकर्म के विषय के रूप में सचेतन चुना
है |मनुष्य की चेतना को कुंद कर देने वाले और गुलाम बनाने वाले तमाम विचारों,
प्रव्रत्तियो और परम्पराओं से वे दुश्मनी ठाने हुए हैं | ईश्वर,खुदा और धर्म इन
सबको वे शोषण का हथियार मानते हैं | वे अपनी कविता में गणेश ,चूहा , कच्छप , बराह
, नरसिंह आदि तमाम मिथकों और अवतारों की अवधारणा से वे मुठभेड़ करते हैं | वे
परम्परागत विश्वासों को उलटते हुए एक नयी दुनिया की तामीर के ख्वाब देखते हैं जहाँ
न्याय और बराबरी के साथ –साथ बिचारों की भी आजादी हों | वे कविता में बतियाते हैं
और कविता में ही रोते और गाते हैं, कविता में भाषण देते हैं ,कविता में ही गरियाते
भी हैं | वे कविता में ही दुनिया को उलट देने की हुँकार भी भरते हैं | कविता
विद्रोही की जीविका नहीं जिन्दगी थी और जनान्दोलन एवं मार्क्सवादी जीवन द्रष्टि
उनकी पौष्टिक खुराक थी | वे जैसा जिए वैसा ही मारे भी एक सक्रिय और बहादुराना
मृत्यु , मानो कोई मध्य कालीन संत शताब्दियाँ पार करके आधुनिक सभ्यता के जंगलों
में आ निकले और उसकी सारी बिडम्बनाए और चोटें झेलते फक्कड़ मलंग बना हमारे समय से
गुजर जाये कबीराना अन्दाज में अपनी मातृभाषा में अपना घर फूंकने के लिए ललकारते
हुए |
रमाशंकर विद्रोही का जन्म ०३ दिसंबर १९५७ को
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद के अइरी फिरोजपुर गांव में हुआ था |बचपन में ही उनका विवाह श्री रामनारायन यादव और श्रीमती
करमा देवी की पुत्री शांतिदेवी से हो गया | कहा जाता है कि शांतिदेवी पढने जाती थी
और रमाशंकर भैंस चराते थे | शुरू में लोगों ने इसे एक बेमेल विवाह के रूप में देखा
|पर शान्ति देवी ने ही उन्हें पढाई –लिखाई
के लिए प्रेरित किया | उन्होंने बी ए करने के बाद एल एल बी में दाखिला लिया पर आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई
पूरी नहीं कर सके और नौकरी करने लगे | कुछ समय बाद नौकरी छोड़ कर १९८० में जवाहर
लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में एम ए दाखिला लिया | वामपन्थी छात्र आन्दोलन के
सम्पर्क में आये और उसके सक्रिय कार्य कर्ता बन गये | १९८३ में छात्र आन्दोलन में
बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी ली और जे एन यू से निकाल दिये गये | निकाले जाने के बावजूद वे
जे एन यू के नागरिक बन कर जिए | अब तो जे एन यू के विद्रोही या विद्रोही का जे एन
यू में क्या सच है कह पाना मुश्किल | इतना परिचित और जाना बूझा लोकप्रिय नाम का
शख्श विश्वविद्यालय में शायद ही कोई हो | छात्रों के बीच गहन लोकप्रियता के कारण
ही जे एन यू प्रशासन उन्हें जे एन यू से बहार नहीं कर पाया | जनता का कवि होने का
अभिमान था विद्रोही को | तभी तो वे अपनी कविता में कहते हैं ..मसीहाई में मेरा कोई
यकीन नहीं है / और न मै मानत हूँ कि कोई मुझ से बड़ा है | साहित्य के नामवरों और
तथा पूंजी और बाजार द्वारा श्रेष्ठता के तय किये पैमाने की उन्होंने कभी परवाह ही
नहीं की | वे हरकारा कवि थे और जनता को जगाये रखना उनकी कविता का कार्यभार था |
विद्रोही अपनी पत्नी शांतिदेवी के प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने उन्हें निभाया |
उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखा | उन्होंने अपनी कविता की किताब नयी
खेती शांतिदेवी को ही समर्पित की है | विद्रोही जैसे शख्श को निभाना शांतिदेवी के
ही जिगर के बस की बात थी |
वैसे
विद्रोही की कविता की असली ताकत उसे सुनते हुए ही महसूस की जा सकती है | वे कविता
लिखते नहीं कविता कहते हैं एक खास अन्दाज में एक सार्थक बयान के बतौर | स्त्री के
दुःख और उत्पीड़न के प्रति जितनी गहरी संवेदना विद्रोही की कविताओं में मिलती है
इतनी कहीं अन्यत्र नहीं मिलती है | विद्रोही की कविता के भुखाली हरवाहा ,कन्हई
कहार, नूर मियां तथा नानी –दादी के अद्भुत चरित्र हैं जो आत्मीयता और जीवटता से
भरे हैं | ऐसे ही लोगों से जो देश बनता है ,विद्रोही उसके कवि हैं | वे जनता के
राष्ट्र के निर्माण की बेचैनी और फ़िक्र के कवि हैं | फ़िलहाल उन्हें अपना देश
कालिंदी की तरह लगता है और सरकारें कालिया नाग की तरह जिससे देश को मुक्त कराना
उनकी कविता का जरुरी कार्यभार है | विद्रोही को सुनना जनता के किसी कवि को सुनना
मात्र नहीं है बल्कि खुद को सुनना है ,खुद को बचाना है |अपनी भीतर की जिद को मजबूत
करना है | अपने भीतर उस इंसान को बचाये रखना है जो आजाद है ,जो समझौता नहीं करता
,जो कभी हारता नहीं और जो कभी मरता भी नहीं | विद्रोही को सुनना अपनी रगों में
किसी आदिम और नैसगर्किक ज्वार के उमड़ने के अहसास को हासिल करने जैसा है|विद्रोही
अपनी कविताओं में सहज न्यायबोध,सामाजिकता,मनुष्यता ,आजादी ,बराबरी ,इश्क,क़ुरबानी जैसे
भावों के ऊपर जमी धूल को पोंछ कर हमको ही सौंपते हैं | विद्रोही पितृ सत्ता, धर्म
सत्ता और राज्य सत्ता के हर छद्म दे वाकिफ हैं | परम्परा और आधुनिकता के मिथकों से
आगाह हैं | औरत शीर्षक की कविता की आखिरी पक्तियों में वे कहते हैं ;
इतिहास की वह पहली औरत कौन थी / जिसे
सबसे पहले जलाया गया ? यह मैं नहीं जनता / पर वो जो भी रही होगी/ मेरी माँ रही
होगी / मेरी चिंता यह है / कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी? जिसे सबसे अंत
में जलाया जायेगा / मैं नहीं जानता / लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी /और यह मै
हरगिज नहीं होने दूंगा |
विद्रोही के साथ चलना हर किसी के लिए आसान नहीं
है ,उनकी कविता जिन लोगों के साथ है वे विद्रोही को पहचान रहे हैं और वे ही
विद्रोही को जिन्दा रखेंगे अपने हौंसलों और अपने बुलंद इरादों में |
No comments:
Post a Comment