Wednesday 18 May, 2011

सिद्धान्तहीन राजनीत की अविश्वशानियता



भगवान स्वरूप कटियार
जनतंत्र को हमने सबसे आदर्श व्यवस्था के रूप में चुना और अपनाया था . जनतंत्र हर तरह की बराबरी का पर्याय है.पर हमने जब जनतंत्र को अपनाया तब ना तो देष में आर्थिक बराबरी थी और ना ही सामाजिक बराबरी और सिद्धान्तहीन राजनीत के ६२ सालों के सफर में आर्थिक-सामाजिक गैरबराबरी की यह खाई लगातार बढती गयी जिसके कारण दुनियां का सबसे बडा लोकतंत्र सबसे भ्रष्ट और दरिद्र लोकतंत्र में तब्दील हो गया .संविधान निर्माता डा॰ बी॰ आर॰ अम्बेडकर ने देश का संविधान सौपते वक्त देश में मौजूद इन अन्तरविरोधों को तत्काल समाप्त कर लेने की बात कही थी , वरना उनके खतरों के दुष्परिणाम विस्फोटक होंग और लोकतंत्र वस्ताविक लोकतंत्र के रूप में बच पयेगा ,इस पर उन्होंने आशंका व्यक्त की थी. आजादी का इतना लम्बा सफर तय करने के बाद भी सामन्ती अवशेष अभी भी मौजूद हैं और उसी का परिणाम है सिध्दान्तहीन, सामाजिक सरोकारों से वंचित राजनीत को एक उद्योग में तब्दील होना.कुछ अपवादों को छोड कर अधिकाँश दलों के पास ना तो लिखित सिध्दान्त हैं और ना ही देश के लिए लिखित कार्यक्रम .चुनाव के दौरान हर राजनैतिक दल अपना घोषणा पत्र बनाता है जिसमें अधिकाँश बातें एक जैसी होती हैं और देष के लिए दीर्घकालीन कार्यक्रम नदारद रह्ता है. फील गुड और इन्डिया शाइन की तरह लुभावने और छद्म आदर्शों के अतिरिक्त और कुछ नही होता.जबकि होना यह चाहिए हर राजनैतिक दल का सिध्दान्त और कार्यक्रम चुनाव आयोग में पंजीकृत हो और उनसे विचलन के विरुध्द चुनाव आयोग कार्यवाही करे.सिर्फ मतदान करना और सरकार बनाना ही लोकतंत्र नहीं है बल्कि देखना यह है कि लोग लोकतंत्र की अनुभूति कर रहे हैं तथा संस्थाओं और उनकी कार्य प्रणाली का जनतंत्रीकरण हो रहा है कि नहीं.भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हमारी नींद तब खुली जब वह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गया है.राजनीत का अपराधीकरण, सिध्दान्तहीन और धन -बल की ही राजनीत का दुष्परिणाम है. यह कैसी बिडम्बना है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के राजनैतिक दलों में कुछ अपवादों को छोड कर आंतरिक लोकतंत्र सिरे से गायब है.सभी दल प्राईवेट लि॰ की तरह व्यवहार करते हैं.
इसी सिध्दान्तहीन और सामाजिक सरोकारों से वंचित राजनीत का परिणाम है कि हमारा देश मानव विकास सूचकांक के लिहाज से फिसड्डी देष है.भले ही हम अपने आप को उदीयमान एषियाई ताकत और सूचना प्रौद्योगिकी की महाशक्ति कहते हों.देश में असंतुलित विकास ,विधायक और सांसदनिधि का बढता दुर्पयोग और आये दिन अरबों-खरबों के घोटाले हमारे लोकतंत्र के विद्रूप चेहरे की तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं.बेलगाम धनसंचय और बेहिसाब भोगविलास की रंगरेलियों में डूबे रहने वाला देश का छोटा सा धनाढ्य वर्ग फलफूल रहा है और दरिद्रता तथा गरीबी में डूबा मेहनतकषों का एक बडा हिस्सा जो सम्पदा पैदा करता है रात दिन पिस रहा है.यह निर्मम विरोधाभास एक बेहद असंतुलित विकास की रणनीति का परिणाम है.कृषि जो आज भी हमारे देश के एक बडे तबके की रोटीरोजी का जरिया है, पर उपेक्षा का षिकार है और किसान तबाही झेल रहे हैं.सेवा तथा भू-सम्पति व्यवसाय के क्षेत्र को प्राथमिकता में रखा जा रहा है और उनके लिए हमारे प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों को कार्पोरेट लूट के लिए लगातार खोला जा रहा है. अपनी बढती आर्थिक ताकत और यहां तक कि पूंजी के कुछ निर्यात के बाबजूद राजनीतक तौर पर षासक नौकरषाह तथा पूंजीपतिवर्ग अपने मूल दलाल चरित्र को बरकरार रखे हुए है. हमारी सिध्दान्तहीन राजनीत अपराधिक तत्वों अवैध धन और भ्रश्ट नौकरशाही का गठज बन गयी है.वित्तीय पूंजी की गहरी पैठ तथा उनकी विस्तृत आर्थिक ,राजनीतिक और सामाजिक कडियां ना सिर्फ देश के स्वतंत्र विकास को बाधित करती हैं बल्कि औपनिवेशिक मानसिकता तथा हर पश्चिमी चीज के प्रति अंधी आसक्ति को जन्म देती है.
सिध्दान्तहीन राजनीत के चलते ना तो देष में कोई कारगर आर्थिक नीत बन पायी और ना ही स्थायी विकास की दिशा तय हो पायी.देश उदारीकरण के जाल में फंस कर कर्ज के भारी बोझ तले दबता चला गया.इसी उदारीकरण ने काले धन की सामान्तर अर्थव्यवस्था को खडा किया जिसके कारण राजनीत में काले धन ने अपनी घुसपैळ बनायी और हमारी नीतियां बहुराष्ट्रीय कंम्पनियों और कार्पोरेट घरानों द्वारा निर्धारित की जाने लगीं क्योंकि वे हमारी व्यवस्था के नियामक बन गये.राजनैतिकि दलों के नेता कहते हैं कि देश में गरीब, अमीर रहेंगे पर गरीब - अमीर का भेद्भाव नही रहेगा.जातिव्यवस्था रहेगी पर जातीय या जातिगत भेदभाव नहीं रहेगा.जिस देश में पढाई और इलाज के लिए दोहरी व्यवस्था हो या यों कहें सारी सुबिधाएं सिर्फं अमीरों के लिए ही हों वह लोकतंत्र गरीबों काA लोकतंत्र तो नहीं हो सकता है . साफ साफ दिखाई देता है कि यह लोकतंत्र नेताओं ,नौकरशाहों,ठेकेदारों और दलालों का गिरोह है जो लोकतंत्र के नाम पर देश को लूट रहा है और इसीलिए वे व्यवस्था में किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते.सिध्दान्त,मूल्यों और देष के प्रति प्रतिबध्द्ता के नाम् पर सब ने देष के साथ छ्ल किया है.हमें दुनियां की उभरती आर्थिक ताकत कहा जा रहा है जबकि विदेषी धन पर हमारी निर्भरता दिनोंदिन बढती जा रही है जो हमारी विपन्नता का सूचक है.जिस देष में अरब पतियों की संख्या बढ रही हो और संसद और विधान सभाओं में भी करोडपतियों की संख्या बढ रही हो जबकि देश विदेशी कर्ज में डूबा हो तो उसे हम कौन सा लोकतंत्र कहेंगे.सिध्दान्तहीन और मूल्यहीन राजनीत ने देश को दिशाहीन राह पर लाकर खडा कर दिया है.मौजूदा सरकार गरीबी उन्मूलन में असफल होने पर उसने गरीबी की परिभाषा ही बदल दी.योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय में गरीबी की जो कसौटी बताई है वह हैरतअंगेज है. आयोग के मुताबिक अगर शहरी क्षेत्र में कोई व्यक्ति महीने में ५७८ रुपये अर्थात २॰ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से एक पैसा भी ज्यादा खर्च करता है तो वह गरीब नहीं है.इस खर्च को बीस अलग अलग मदों में बांटा गया.मसलन साग-सब्जी के मद में खर्च की सीमा एक रुपये वाइस पैसे रोजाना है.इतने में दो जून तो क्या एक जून भी कोई व्यक्ति सब्जी की जुगाड नहीं कर सकता है और इसी तरह शहरी इलाके में मकान का किराये की सीमा औसतन ३१ रुपये प्रति माह रखी गयी .योजना आयोग का यह सोच और नजरिया गरीब और गरीबी के प्रति उनकी गम्भीरता समझने के लिये पर्याप्त है. ग्रामीण क्षेत्र का हाल इससे भी बुरा है.वहां उसी को गरीब आदमी माना गया है जिसका दैनिक खर्च १५ रुपये से ज्यादा ना हो. एक ओर हमारे योजनाकार और नीति निर्माता यह दावा करते हैं कि देष ऊंची विकास दर की बदौलत तेजी से तरक्की कर रहा है और दूसरी ओर सरकार लोगों की आर्थिक स्थिति के आकलन का ऐसा तरीका अपनाती है जिससे देश में गरीबी वास्तविकता से कम कर के दिखाई जा सके. अन्तरराश्ट्रीय मानदण्डों के मुताबिक रोजाना सवा डालर तक खर्च करने वाले को गरीब और इससे कम खर्च करने वाले को अति गरीब की श्रेणी में रखा गया. अगर इस पैमाने को भारत में लागू करें तो तस्वीर कैसी दिखाई देगी, अन्दाज लगाया जा सकता है. इस सच्चाई को छिपाने के पीछे दो कारण हैं , एक तो सरकार की गरीबी को कम करके दिखाने से प्रचलित नीतियों की सार्थकता साबित करने की मंशा पूरी होती है ,दूसरी सरकार सब्सडी का बोझ घटाना चाहती है जिसके लिये यही एक सुगम उपाय है.सरकार की मंषा है कि बी पी एल परिवाारों की संख्या सीमित रखी जाय ताकि सब्सिडी को खत्म किया जा सके.पर क्या आम लोगों की आर्थिक हालत को इस तरह छिपाया जा सकता है. बरसों से देश के विभिन्न राज्यों में किसानों की खुदकुशी की घटनायें बतला देतीं हैं कि किस तरह भारत निर्माण हो रहा है.खुद योजना आयोग ने अपने हलफनामें में कहा है कि देष में रोजाना करीब ढाई हजार बच्चे कुपोशण के कारण मरते हैं जबकि हजारों कुन्टल अनाज बदइंतजामी के कारण गोदामों में सड जाता है.देश की यह बदहाली सिध्दान्तहीन तथा सरोकारविहीन राजनीत का परिणाम है।इससे निजाद पाने का एक ही हाल है कि पूंजी की सत्ता समाप्त कर श्रम की सत्ता कायम हो और राजनीत निजी स्वार्थों की पूर्ति का जरिया ना बन कर जनता की समस्याओं के निदान का कारगर तंत्र बने जो सैध्दान्तिक राजनीत से ही संभव है.

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