Monday 14 February, 2011

स्वर साधना के युगपुरुष भीमसेन जोशी





भगवान् स्वरुप कटियार्
भीमसेन जोशी जैसे स्वर सम्राट का अवसान स्वराकाश में एक जाज्वल्यमान सितारे के डूबने जैसा है. जोशी जी भारत के शास्त्रीय संगीत की दुनियां में गहरी पैळ थी और उनका गायन श्रोताओं के दिलों को छूता हुआ अपना जादुई प्रभाव छोडता है.जोषी जी जैसे स्वर सम्राट कभी मरते नहीं हैं बल्कि वे हमेशा अपने श्रोताओं के दिलों पर राज करते हैं.इस बेसुरे समय में जोशी जी के जाने से जो गहन षोक उपजा है उसे भरने में बहुत समय लगेगा. मल्लिकार्जुन मंसूर,कुमार गन्धर्व् और भीमसेन जोशी इन तीनों स्वर सम्राटों ने तीन अलग ढंग से शास्त्रीय आधुनिकता को संगीत में रुपायित और पो षित किया है. स्वर साधना शास्त्रीय होते हुए भी जनमानस में लोकप्रिय रहे.भीमसेन जोशी ने शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई.वे हमारे समय के सबसे लोकप्रिय गायक थे.उनके शास्त्रीय गायन में एक ओर् पौरुष की ऊर्जा और वैभव था तो दुसरी ओर लालित्य और कोमलता थी.शास्त्रीय संगीत के रसविध्द , कवि थे . उनके गायन में पुकार,मनुहार और ललकार सब अपनी अपानी बारी से आते जाते थे. अच्छे गायक और महान गायक में जो भेद है वह अत्यन्त कळिन है. अच्छा गायक रागरूप की सारी मर्यादाओ ंका पालन करते हुए सक्षमता और तैयारी से राग गाता है पर वह राग पर हावी नहीं हो पाता जबकि महान गायक राग के बहाने या सहारे अपने को गाता .भीमसेन जोषी मियां की मल्हार और पूरिया धनश्री तो गाते ही थे पर उनके माध्यम से भीमसेन जोशी खुद को भी गाते थे. हमारा शास्त्रीय इसकी अनुमति अच्छों अच्छों को नहीं सिर्फ महानता को देता है.किराने घ्रराने के होते हुए भी जोषी ने शास्त्रीय गायन की अपनी शैली विकसित की.उनका संगीत और गायन घ्रानो की हदों में नहीं समझा जा सकता.उन्होंने एक तरह से अपना संगीत विकसित कर अपना एक अलग घराना बना लिया था.
अपनी लगभग नब्बे वर्ष की जिन्दगी का एक बडा हिस्सा उन्होने संगीत साधना में लगा दिया.जोषी जी शास्त्रीय गायन के पर्याय बन गये थे. साळ के दसक में भीमसेन जोशी ने शास्त्रीय गायन के क्षेत्र मे़ं अपनी स्वर साधना से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा और इसके बाद यह सिलसिला रुका नहीं.जिस समय समय जोषी का रुतबा जमना षुरू हुआ उस समय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत एवं गायन अत्यन्त समृध्दि स्थिति में था.उस समय शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में अनेक प्रतिभाएं शिखर पर थीं.उसी समय कुमार गंधर्व,गंगूबाई हंगल, अमीर खां,मल्लिकार्जुन मंसूर किसोरी अमोन्कर .बडे गुलाम अली,निसार हुसेन् खां शास्त्रीय गायन के षिखर पर थे.शराफत हुसेन् खां ,और वासवराज राजगुरु जैसे संगीत मर्मज्ञ भी प्रभाव जमाये हुए थे. षुरू में जोशी जी के गायन एक सैट पैटर्न था जैसे शाम को पूरिया धनाश्री,माारू विहाग, तिलक कामोद,फिर यमन कल्याण, पूरिया कल्याण,मालकौंस, अभोगी आदि.सुबाह को भूले भटके ही ललित,मियां की तोडी,यामनी विलावत और वृन्दावनी सारंग गाते थे और अन्त मेंजो भजे हरि को सदा,सोई परम पद पाये गागाते थे .उनका गायन सुनने में श्रोताओं को कभी उकताहट नहीं होती थी. फिर धीरे धीरे जोशी जी स्वयं अपनी सीमाओं का अतिक्रमण षुरू किया,इसके बाद उनके रागों की संख्या बढी तो बढ्ती चली गयी. बडोदरा(गुजरात ) के दरबार हाल में जोषी जी के गायन आयोजन प्राय्ाः होता था जहां आफताबे मौसकी उस्ताद फैयाज खां की मूर्ति के सााये में बडे बडे कलाकार घंटों गाते बजाते थे. जोशी जी गायन की वैविध्य सम्पन्नता उनकी खाषियत थी. खयाल,ळुमरी,नाट्य संगीत, भजन , अभंग ,वचन आदि अलावा फिल्मी गाने भी उनके संगीत भंडार के अभिन्न अंग थे. आकाशवाणी दिल्ली सेे 1960 में प्रसारित उनका गाया गीतऊधौ कौन देष को वासीबहुत लोकप्रिय हुआ. इसी दरबार हाल से उन्होने रागों का अतिक्रमण शुरू किया और जोशी जी ने अपने को गाना शुरू किया. जो उल्लेखनीय परिवर्तन उनके गायन परलक्षित होना शुरू हुआ वह था कंळ की उन्मुक्तता.गायन तो उनका षुरू से ही सषक्त और ऊर्जा से परिपूर्ण था और कोमलता उसमें शुरू से ही थी. इसलिए वह चकित और मुग्ध कर देने वाली आकस्मिकता से एक ही तान में अपना स्थान बदल सकते थे पर वे गाते दबे कंळ से ही थे. यह उनकी गायकी का ऐसा पक्ष था जिसका अहसास होना श्रोताओं को तब शुरू हुआ जब उन्होंने मुक्त कंळ से गाना शुरू किया. उनके चमतकृत कर देने वाली गले की मिळास ने जोशी जी के गायन को लोकप्रिय बनया. लगता था जोशी जी खुद को आविष्क्रित करने में लग गये थे और असंभव को संभव बनाने की धुन में जुट् गये थे. भीमसेन जोषी की गायकी की संरचना शुरू से ही सुगळित और शौश्लावपूर्ण थी. यह तथ्य विशेष उल्लेखनीय है उनके खयाल गायन में अंतरा की विस्तृत अदायगी के संबन्ध् में. एक और विशेषता उनके अंतरा गायन के दौरान देखने में आती थी कि वे जब चाहते थे सम पर आने वाले शब्द को बदल लेते थे जबकि श्रोता समझते थे कि सम निर्धारित शब्द पर ही आयेगा.
पुनर्नवा भीमसेन जोशी के खुले गले से जो अतिरिक्त वैभव मिलना था उनके गायन में वह तो मिला ही साथ ही उन्होंने अपनी खयाल संरचना में भी निखार किया.पर इससे भी बढ कर सबसे महत्वपूर्ण और आकर्षक काम उन्होंने किया वह था अपने खयाल गायन के विस्तृत आलाप की शुरुआत.एक लम्बे अरसे तक अपने सार्वजनिक गायन में बगैर लम्बे आलाप के सीधे बंदिश पर आजाते थे पर अब वे विस्तृत आलाप प्रस्तुत करने के बाद ही ताल -बध्द बंदिश प्रस्तुत करने लगे थे.आगरा घराने के गवैयों की तरह.उनका आलप बहुत अनूळा जो बंदिश के सहारे ही चलता था. ताल-मात्रा से निर्बाध,पारंपरिक आलाप की तरह भीमसेन जोषी का आलाप भी राग के स्वरूप को भी धीरे-धीरे उद्घाटित तो करता ही है साथ-साथ बंदिश के रहस्य को भी उदघाटित करने लगता. लाल किले में जोशीजी का गाया गया मारू बिहाग श्रोताओं को रोमांचित कर देने वाला यादगार शास्त्रीय गायान था. यही समय था जब जोशी जी ने अपना राग भंडार बढाना षुरू किया. अबश्रोताओं का भी विशवास बनने लगा था कि जरूर कुछ नया सुनने को मिलेगा. इतानाही नहीं अब नयी-नयी बंदिशे भी सुनने को मिलने लगी थीं. अगर पहले का कोई सुना हुआ राग गाने जोशी जी जा रहे हों तो यह उम्मीद होने लगी थी कि उस राग की दूसरी बंदिश सुनने को मिलेगी.उनके गााये हुए,‘सुमिरो तेरो नाम ‘,लट उलझी सुलझा जा बालम हांथों मेम मेरे मेंहदी लगीगीत आज भी लोगों की जवान पर हैं.भीमसेन जोशी ने एक बृहद श्रोता समूह तैयार किया था जो आज भी है और उनके जाने से शोकतंत्रिप्त है. एक उल्लेखनीय संस्मरण उस समय का है जब देश में आपातकाल लागू था ,कमानीआडोटोरियम में सुबह का गायन था.कार्यक्रम का समापन जोशी जी ने एक क्रान्तिकारी भजन गाया जिसके बोल थे ,‘सोच समझ नादान,जिस नगरी में दया धरम नहिं, उस नगरी में रहना चााहे सोच समझ नादानआपातकाल में भारत की राजधानी यह पारंपरिक भजन गाकर जोषी जी नगर का चित्रण कर जनचेतना फैला रहे थे जो एक षास्त्रीय गायक के लिये दुस्साहिसिक कार्य कर रहे थे. जिस देश कला और कलाकार जनचेतना का स्रोत और माध्यम बनने लगें तो समझो यह एक शुभ लक्षण है और परिवर्तन बहुत दूर नहीं है. भीमसेन जोशीजी को देश के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित कर भारतरत्न स्वयं सम्मानित हुआ. जोशी जी की कमी उनका गायन पूरा करेगा जो हमारी बहुमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है.








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