भगवान स्वरूप कटियार
घरों के भीतर घुटन का धुआं
घरों के बाहर दहशत की आग
आखिर कहां है मेरे हिस्से का देश
जहां मैं खडी होकर सांस ले सकूँ.
देश मर रहा है और हम जी रहे हैं
बेवजह ,बेमक़सद .
अचानक नहीं होती है शुरू आत
नये जमाने की
कोई भी बदलाव पुराने के खात्मे के बाद ही आता है
नयी पौध पुराने पौधों की खाद पाकर ही पनपती और बडी होती है
हम एक ताजा शुरू आत कर सकते हैं
क्योंकि यही हमारे बस में है
और शायद वक्त के मुताबिक यही है
वाजिब और मुनासिब.
जानबूझ कर मरना कायरता नहीं होती
चाहे वह आत्महत्या ही क्यों ना हो
न्याय की ताकतें जब कमजोर पडने लगें
और भविष्य अंधेरे में डूबा दिखे
तब भी सोचा जा सकता है कुछ अलग
अजूबा.बेढंगा. अनगढ, अराजक
पर सच्चा और निश्चछल
जैसे हम खुद हैं.
मैने फेसबुक पर लिख दिया
मैं जा रही हूं तहरीर चौक अकेली
जिसको आना हो आये मेरे साथ
जब हम हजारों,लाखों, करोडों की तादात में
होंगे तो तानाशाह भी सुलगेगा अन्दर ही अन्दर
और जिन्दा मुर्दे भी दहक उळेंगे
हमारी आग की तपिश से.
मैं तहरीर चौक पर खडी आवाज दे रही हूं
आओ मेरे देशवासियो
बचाओ अपने देश को
तितलियों ,फूलों और खिलौनों से
खेलने वाले मेरे हाथों में आग का दहकता गोला है
लडकियां सिर्फ लडकियां नहीं होती
वे मशाल और चिनगारी भी बन जती हैं
और ळंडी हरी घास बन कर भी फैल जाती हैं
पूरी धरती पर विराट हरियाली के समन्दर की तरह्
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