Wednesday 5 January, 2011

विनायक सेन की सजा पर उठते सवाल



- भगवान स्वरूप कटियार

किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब सरकारों द्वारा लूट और दमन बढ़ता है तो उसी अनुपात में जन आक्रोश का उभरना स्वाभाविक है। उस जनआक्रोश की भाषा और भावना को समझना लोकतान्त्रित सरकारों का संवैधानिक और नैतिक दायित्व है ताकि समस्याओं का समाधान निकाला जा सकें। पर जब जनाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मानवाधिकार के प्रति समर्पित समाजिक कार्यकर्ताओं के विरूद्ध न्यायपालिका का इस्तेमाल कर कानून का दुरूपयोग कर और गलत सजाये सुनाकर जनता की आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है तब लोकतन्त्र को खतरा उपस्थित हो जाता है | माओवाद और नक्सलवाद जैसे शब्दों या विचारधाराओं से भड़कने के बजाय सरकारों को यह समझने की जरूरत है कि आखिर यह विचारधारायें क्या कहती हैं और उनके प्रति निष्ठावान लोग कैसे समाज का सपना बुन रहे हैं। मार्क्स, अम्बेदकर और भगत सिंह का साहित्य यदि इनकी प्रेरणा की ताकत है तो निःसन्देह यह गलत लोग नहीं हो सकते और ही यह साहित्य प्रतिबन्धित साहित्य कहा जा सकता है। गत दिनों वैश्विक मन्दी के दौरान वैज्ञानिक समाजवाद के महान विचारक कार्ल मार्क्स की बहुचर्चित पुस्तक पूँजी का पूर्नप्रकाशन वृहद संख्या में हुआ और उसकी बिक्री अमेरिका और यूरोप के देशों में हुयी। समाज में लगातार धन के प्रति बढ़ता सम्मान और श्रम की उपेक्षा मेहनतकशों को संघठित करने पर मजबूर करती है। इस दुनिया का आधुनिक चमक भरा चेहरा जो हम देख रहे हैं उसके पीछे सिर्फ श्रम है और पूँजी भी जो वर्चस्व का दाव करती है श्रम की ही उत्पत्ति है। मार्क्स की विचारधारा के अनुयायी कोई भी हों उनका आशय सिर्फ ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ अन्याय और भूख हो तथा समाजिक और आर्थिक विषमतायें सर उठाती हों।
डा0 विनायक सेन को छत्तीसगढ़ के जिला रायपुर में जिला और सत्र न्यायालय ने उम्र कैद की जो सजा सुनायी उसपर जनता की तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। तमाम लेखों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने इस फैसले पर दुःख और प्रतिरोध प्रकट किया है। इस दुःख और प्रतिरोध प्रकट करने वालों में भारत के नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डा0 अर्मत्यसेन, अमेरिका के विश्वविख्यात चिन्तक नोमचोमस्की भी शामिल हैं। विचारणीय बात यह है कि आखिर क्यों एक आदालती फैसला देश की जनता के लिये इतनी बड़ी बेचैनी बन जाता है। विनायक सेन को देशद्रोह के जुर्म में उम्रकैद की सजा सुनायी गयी है जबकि आश्चर्य की बात यह है कि अदालत के पास ऐसा एक भी ठोस सबूत नहीं है जो विनायक सेन पर लगाये गये देशद्रोह को साबित कर सके। डा0 विनायक सेन किसी की हत्या करने, हथियार उठाने या हिंसा की किसी साजिश में होने का कोई आरोप नहीं है। उनके खिलाफ अभियोग बस यह था कि वे जेल में बन्द नक्सली नेता नारायण सान्याल से कई बार मिले थे और उनकी कुछ चिठ्ठियाँ किसी और तक पहुँचाई थीं। डा0 सेन ने यह मुलाकातें मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर की थीं और वह भी जेल अधिकारियों की निगरानी में। इसलिये इस दौरान कोई साजिश रचे जाने का सवाल ही नहीं उठता। अगर यह मान भी लें कि वे सान्याल के पत्रवाहक बने थे तो क्या यह उम्रकैद का मामला बनता है? विडम्बना तो यह है कि इण्डियन सोशल इन्स्टीट्यूट के संक्षिप्त रूप आई.एस.आई के आधार पर अभियोग पक्ष ने डा0 सेन का सम्बन्ध पाकिस्तानी खुफिया ऐजेन्सी से जोड़ दिया और अदालत ने उस पर कोई सवाल नहीं उठाये। लिहाजा यह फैसला किसी भी द्रष्टि से न्यायसंगत तो है ही नहीं बल्कि मानवाधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले डा0 सेन का खुल्लमखुल्ला दमन और उत्पीड़न है जिसकी कोई भी लोकतन्त्र अनुमति नहीं देता। यह सरासर दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र का मखौल है।
लेकिन दुःखद बात यह है कि देश की दोनों सबसे बड़ी पार्टियाँ कांग्रेस और भाजपा इस फैसलें में कोई चिन्ता नहीं करती। इससे नागरिक अधिकारों के प्रति इन पार्टियों की संवेदनहीनता जाहिर होती है। भाजपा तो फैसले को जायज ठहराने और विनायक सेन के खिलाफ फिर से दुष्प्रचार में जुट गयी है। कांग्रेस ने बस यह कहकर चुप्पी साध ली कि डा0 सेन उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। अलबत्ता कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह यह जरूर कहा कि डा0 सेन भले आदमी हैं और उनके विरूद्ध न्यायालय की इस फैसले की समीक्षा होनी चाहिये। यह सही है कि डा0 सेन के लिये ऊपरी अदालत में अपील करने का विकल्प खुला है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जिला अदालत में जो फैसला दिया है उसकी आलोचना हो। भोपाल गैस काण्ड में भी जिला अदालत के निर्णय की चौतरफा निन्दा की गयी थी और कानून मंत्री तक ने दुःख व्यक्त किया था। मामला विनायक सेन तक ही सीमित नहीं है। सवाल यह है कि अदालतें अगर इसी तरह फैसला सुनाएगी तो इन्साफ के उसूलों और हमारी लोकतान्त्रित व्यवस्था का क्या होगा। लेकिन यह दोनों पार्टियाँ इस बात से तनिक भी विचलित नहीं दिखायी देती कि डा0 सेन के मामले पर पूरी दुनिया की निगाह है और इसे हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली के एक इन्तहान के रूप में देखा जा रहा है। कांग्रेस ने इमरजेन्सी के 35 साल बाद जाकर एक हद तक अपनी ज्यादतियों को स्वीकारा था। हलांकि इसके लिये इन्दिरा गांधी की तानाशाही को नहीं बल्कि संजय गांधी को जिम्मेदार ठहराया। लेकिन अब भी कांग्रेस ने इमरजेन्सी से कोई सबक नहीं लिया है। वरना डा0 विनायक सेन को हुयी उम्रकैद की सजा पर उसका रूख कुछ और होता। भाजपा हमेशा इमरजेन्सी को लेकर कांग्रेस को कोसती रही है। मगर लोकतान्त्रिक मूल्यांे और नागरिक अधिकारों को लेकर उसका रवैया भी बेहद चिन्ताजनक रहा है। लोकतन्त्र का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं होता है। अगर असहमती जताने का अधिकार हो तो लोकतन्त्र केवल राजनैतिक उद्योग बनकर रह जाता है।
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में राज्य और सरकार दोनों को एक ही माना जा सकता है। राज्य तो स्थायी व्यवस्था है लेकिन सरकारें देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप आती जाती रहती हैं। व्यवस्था चलाने के लिये इन सरकारों का विधायी अंग कानून ही बनाता है। जिसके अनुरक्षण का दायित्व कार्यपालिका के पास होता है। न्यायपालिका को भी राज्य का ही अंग माना जाता है क्योंकि उसकी कोई अलग से सत्ता नहीं होती है। भारतीय संविधान में नागरिकों को मूल अधिकार दिये गये हैं। उसी के अनुच्छेद 19 (1) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्रम में ही राजनीतिक संगठनों के बनाने और उसके चलाने का भी अधिकार है। अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी भारतीय दण्ड विधान की धारा 124 में राजद्रोह को यों प्रभाषित किया गया है- ‘जो कोई व्यक्ति लिखित या मौखिक शब्दों, चिह्नों या दृष्टिगत निरूपण या किसी भी तरह से नफरत या घ्रणा फैलाता है या फैलाने की कोशिश करता है या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ विद्रोह भड़काता है या भड़काने की कोशिश करता है इसके साथ ही तीन व्याख्यायें भी दी गयी हैं, पहला विद्रोह की अभिव्यक्ति में शत्रुता की भावनायें और अनिष्ठा, दूसरे बिना नफरत फैलाये या नफरत फैलाने की कोशिश किये सरकार के कार्यों की आलोचना करने वाले मत प्रकट करना यह इस धारा के अन्तर्गत अपराध नहीं माना जायेगा और तीसरे बिना नफरत फैलाये अवग्या या विद्रोह फैलाये बिना ही प्रशासन या सरकार के किसी अन्य विभाग की आलोचना करने वाले मत प्रकट करना इस धारा के अन्तर्गत अपराध नहीं माना जायेगा। लोकतान्त्रिक देश में शान्त पूर्ण आन्दोलन को राजद्रोह की परिभाषा में नहीं रक्खा जा सकता। लोकतान्तित्र निर्वाचित सरकारों के खिलाफ आन्दोलन या अभिव्यक्ति को यदि राजद्रोह का कारण मान लिया जाय तो सरकारों की निरंकुशता बढ़ेगी। बारीक धारा यही है कि प्रतिरोध हिंसक नहं होना चाहिये इसलिये 124 की परिभाषायें की गयी हैं और कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित सरकारों को उन लोगों से अलग होकर देखना चाहिये जो कुछ समय के लिये कार्य कर रहे हैं। इसलिये यह प्रश्न किसी एक व्यक्ति और उसकी सजा तक ही सीमित नहीं है बल्कि लोकतान्त्रित व्यवस्था में राजद्रोह की सीमायें निर्धारित करता है कि इसका प्रयोग जनता के मूल अधिकारों को समाप्त करने के लिये नहीं हो सकता है। सरकार का काम विचारों पर प्रतिबन्ध लगाना नहीं है। इसलिये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता समाज के विभिन्न अंगों समुदायों को प्रदान की गयी हैं। अभिव्यक्ति की सुन्दरता के तहत ही संगठन बनाने और चलाने की आजादी को भी देखा जाना चाहिये। उन संगठनों और संगठनों के संचालकों की निष्ठा सरकार के प्रति हो ऐसा आवश्यक नहीं इसलिये डा0 विनायक सेन पर हुआ यह अदालत का फैसला केवल कल्पित परिणामों पर आधारित है बल्कि व्यवस्था को साधारण परिभाषा में ही मूल अधिकारों से अलग करके लिया गया है।
राज्य सत्ता के सबसे बड़े प्रतिनिधि की अगर यह समझ है तो क्या यह अपेक्षा करना उचित है और न्यायपूर्ण हो सकता है कि देश के व्यापक लोकतान्त्रिक दायरें में सभी लोग माउवादियो को उसी तरह अपराधी और आतंकवादी मानें जैसा कि देश के शासक वर्ग या दक्षिण पन्थी समूहों की मान्यता है। और इस परिप्रेक्ष्य में विनायक सेन अगर नारायण सान्याल से मिलते थे और जैसा कि अदालत नतीजे पर पहुँची है कि उन्होंने सान्याल की चिठ्ठी उनके किसी सहयोगी तक पहुँचा दी तो क्या उसके लिये डा0 सेन को उम्रकैद जैसी कठोरतम सजा राजद्रोह का अपराध घोषित करके सुना दी जानी चाहिये। चूँकि यह फैसला अगर अपर्याप्त नहीं है तो कम से कम अधूरे और महज परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर सुनाया गया लगता है। इसलिये समाज के एक बड़े हिस्से का इस फैसले के पीछे एक किसी राजनैतिक भूमिका की सम्भावना लगती है। इस क्रम में इस फैसले के सन्दर्भ में भी वही सवाल उठते हैं जो अयोध्या विवाद पर सितम्बर मंे आये इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से उठे थे। यह प्रश्न एक बार फिर प्रसांगिक हो गया है कि न्यायिक फैसले ठोस सबूतों और उसके वास्तविक सन्दर्भ के आधार पर होने चाहिये कि आस्था या राजनैतिक दुर्भावना के प्रभाव या किसी न्यायेत्तर उद्वेश्य की पूर्ति के लिये।
इसलिये यहाँ सवाल यह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता कानून से ऊपर है? बहुत से लोगों की इस शिकायत में दम हो सकती है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं या संगठनों का एक हिस्सा एकांगी सोंच से चलता है और भारतीय राजसत्ता के स्वरूप और भूमिका के प्रति बेहद नकारात्मक रवैया रखता है। यह बात निर्विवाद है कि अगर कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता काम का उल्लंघन करता है तो उसे जरूर सजा होनी चाहिये। लेकिन विनायक सेन के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात या सवाल या शिकायत नहीं है। यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर एक जनतान्त्रिक लेकिन वर्गों में बंटे समाज में न्यायपालिका की क्या भूमिका है और उससे कैसे उम्मीदे रखी जानी चाहिये। इस सन्दर्भ में यह सामान्य अपेक्षा है कि सिर्फ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से सम्बन्धित मामलों बल्कि हर न्याययिक मामले में इस निष्कर्ष तक पहुँचने और सजा की मात्रा तय करने इन्साफ हुआ जरूर दिखना चाहिये। चूंकि विनायक सेन के मामले में इन दोनों ही पहलुओं पर तार्किकता और न्याय के सिद्धान्तों का पालन हुआ नहीं दिखता इसलिये देश के व्यापक जनतान्त्रिक दायरें में इतनी बेचैनी है।

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