Friday 15 April, 2011

भारतीय रंगमंच में दलित चेतना


भगवान स्वरूप कटियार
भारतीय रंगमंच का इतिहास लम्बा और विविधतापूर्ण है.लोक जीवन में नाटक का उदभव श्रमिकवर्ग द्वारा अपनी लोक अभिव्यक्ति को संगीत और गायन के माध्यम से प्रकट करने से हुआ.यह कहना अतिषयोक्ति न होगा कि भारतीय सिनेमा भी भारतीय रंगमंच की कोख् से उपजा है.रंगमंच जनता के दुख-दर्द और सपनों- आकाक्षाओं को षिल्प के बन्धे बंधाए ढांचे को तोडते हुए नई अभिव्यक्ति देने की कोषिष करता रहा है.प्रसिध्द जनवादी सिने कलाकार बलराज साहनी कहते हैं कि आज जब हम मानवता की बात करते हैं तो प्रष्न उळता है कौन सी मानवता,किसे कला की सबसे अधिक आवष्यकता है,उनका कहना है कि मेरे विचार से कला की सबसे अधिक जरूरत उन्हें है जिनके पास खुषी के कोई साधन नहीं है,जो श्रम करते हैं,हल चलाते हैं,यदि उन्हें हम कुछ दे सकें तो कला की सार्थकता होगी.कहा जाता है कि हिन्दी का पहला नाटक 3ाप्रैल 1868 को ”जानकी मंगल” का मंचन वाराणसी के नाचघर (बनारस थियेटर) में किया गया था जिसमें भारतेन्दु जी ने लक्षमण की भूमिका निभाई थी. आज रंगमंच में विचार की कमी है. आज विजय तेन्दुलकर और बादल सरकार जैसे नाटककार हिन्दी रंगमंच के पास नहीं हैं. आज हिन्दी रंगमंच में पहली जैसी सामूहिकता नहीं दिखती,पहले जैसा जज्बा नहीं दिखता.एक समय था जब् महिलाओं के गहने गिरवी रख कर नाटक किये जाते थे,सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं था पर रंगमंच में सबकुछ था. आज सुविधाएं बढी हैं लेकिन रंगकर्मियों में जज्बा कम हुआ है.रंगमंच के माध्यम से सामाजिक सरोकारों के मुद्दे उळाये जाने की आवष्यकता है जिससे रंगमंच जनता की आवाज का सषक्त माध्यम बन सके.
भारतीय रंगमंच की षुरुआत और स्रोत के रूप में रामायण और महा भारत जैसे जिन दो महाकाव्यों का सबसे बडा योगदान है उनके रचयिता क्रमषः बाल्मीकि और व्यास दोनों ही दलित वर्ग से थे. इन दोनों महाकाव्यों में तत्कालीन समाज के हाषिए पर के लोग पूरे प्रभाव के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं.षबरी,केवट,जटायु तथा राम की तथाकथित वानर सेना जो तत्कालीन आदिवासी समाज था आादि चरित्र इतने प्रभावषाली हैं जो किसी राजा या रानी के चरित्र से ज्यादा प्रभाव डालते हैं.महा भारत में एकलव्य,हिडिम्बा,घटोत्कच,बर्बरीक यहां तक कि कर्ण जैसे चरित्र इतने प्रभावषाली हैं कि उनके सामने अन्य चरित्र गौड हो जाते हैं.इन दोनो महाकाव्यों के ये महत्वपूर्ण चरित्र दलित वर्ग के ही हैं और इसी कारण वे उपेक्षाओं और तिरिस्कार की पीडा सहते रहे हैं. यहीं पर चार वेदों से अलग नाट्य-षास्त्र की पांचवे वेद के रूप में परिकल्पना करना जिसे समाज के सभी वर्ग विषेश कर समाज का दलित वर्ग भी पढ सके एक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय घटना है जिसकी रचना विषेश कर दलित वर्ग के लिये ही की गयी थी और इसीलिए एक लम्बे अरसे तक मंच पर अभिनय करने वाले लोग समाज के इन्हीं वर्गों के लोग थे. चाणक्य जैसे विद्वान ने इन नाट्य कलाकारों को नगर सीमा के भीतर अवास पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. मध्यकाल में जिस तरह के मौखिक, क्षेत्रीय और लोक रंगमंच का जन्म और विकास हुआ वह पूरी तरह से दलित वर्ग पर ही आश्रित था. इतना ही नहीं इन नाटकों के कथानक भी उनके अपने जैसे पात्रों से जुडे होते थे.दलित चेतना के स्तर पर रचना और रचयिता का रिष्ता और भी फैलता दिखाई देता है.भारतीय रंगमंच के पिछले देढ सौ वर्शों् के इतिहास में भारतेन्दु,जय षंकर प्रसाद ,उपेन्द्र नाथ अष्क,जगदीष चन्द्र माथुर गिरीष घोश जैसे नाटककार जो भले ही उच्च वर्ग में जन्म लेते हैं पर उनके नाट्कों में ऐसे प्रसंग हैं जो दलित चेतना और उसके आत्मसंघर्श को पूरी षिद्दत से प्रस्तुत करते हैं.सामाजिक परिवर्तन् की क्रान्ति और साहित्य में दलित विमर्ष की षुरुआत महाराश्ट्र प्रान्त से होती है. इसका मुख्य् कारण महाराश्ट्र प्रान्त की सामाजिक व्यवस्था रही है जिसने सामाजिक क्रान्ति के आन्दोलन और साहित्य में क्रान्तिकारी दलित विमर्ष की धारा को जन्म दिया और डा. भीमराव अम्बेडकर जैसे महान क्रान्तिकारी विचारक महाराश्ट्र में पैदा होते हैं.महाराश्ट्र में सबसे पहले दलित साहित्य लेखन की षुरुआत कहानियों,उपन्यासों, आत्मकथाओं और कविताओंसे होती है.कई बार तो लगता है जैसे संपूर्ण मराळी साहित्य दलित विमर्ष का ही साहित्य् है. यही कारण है कि दलित विमर्ष महाराश्ट्र के रास्ते पूरे भारत में फैलता है.विजय तेन्दुलकर के नाटक ”सखाराम बाइंडर”, ”कमला”,प्रेमानन्द गज्बी का नाटक ”महा ब्राह्मण” तथा ऊशा गंागुली का नाटक ”मैय्यत” दलित विमर्ष को प्रभाावषाली ढंग रेखांकित करते हैं और दलितों केे साथ हजारों-सैकडों साल से हो रहे सामाजिक- आर्थिक अत्याचारों और अन्याय को उघाड्ते हैं.दरसल विजय तेन्दुलकर ऐसे अकेले नाटककार हैं , जिनके नाटकों के ज्यादातर तथ्य और सन्दर्भ उन्हीं चरित्रों के भीतर से उद्घाटित होते हैं जिन्हे हम अछुत या दलित कहते हैं.पर ध्यान देने की बात यह है कि तेन्दुलकर के नाटकों में समाज में हाषिये के ये चरित्र दीन-हीन बनकर नहीं आते हैं बल्कि जुझारू और संघर्श कारते व्यक्तित्व के साथ प्रस्तुत होते हैं.”सखाराम बाइंडर” एक ऐसा ही चरित्र है जो अपनी षर्तों् पर जीवन जीता है और जीने में विष्वास रखता है.औरत,खान-पान,और सामाजिक मर्यादा कहीं कोई पर्दा नहीं है.एक दम बिन्दास और बेलौस खुलापन.यही बात उनके नाटक कमला के बारे में कही जा सक्ती है. नाटक में कमला का षुरुआती परिचय हमारे सामने बहुत ही सहमे हुए चरित्र के रूप में आता है पर जिस तरह से अन्त तक आते आते वह नायक जीवन के परिवर्तन का महत्वपूर्ण कारण बनती है ,यह बहुत बडी बात है.प्रेमानन्द गजबी का”महा ब्राह्मण” एक अलग अन्दाज में दलित चेतना को रेखांकित करता है.नाटक का मुख्य पात्र है तो ब्राह्मण पर उनके वंष का मुख्य कार्य मृतकों के दाह संस्कार कराना है.इसलिए समाज में उसकी स्थिति हेय और निचले वर्ग जैसी है.लेकिन जब स्वयं उच्चवर्गीय परिवारों में मृतकों के दाह संस्कार की बात आती है ,तो बहुत ही रोचक ओर जटिल नाटकीय स्थिति का जन्म होता है जिसकी परिणिति उच्च वर्गीय ब्राह्मणों द्वारा उनके संपूर्ण स्वीकार्य में होती है.इसी प्रकार ऊशा गांगुली का नाटक ”मैय्यत” दलितों की जिन्दगी से जुडे बहुत से महत्वपूर्ण सवालों को एक अत्यन्त जटिल कथानक के भीतर से उघाड कर लाता है.इसी तरह कुछ और भी महत्वपूर्ण कृतियां हैं जिनके बारे में भी ध्यान देने की जरूरत है.हिन्दी साहित्य में महान उपन्यासकार प्रेमचन्द के घीसू माधव जैसे चरित्र सत्यजित रे की फिल्म ”सद्गति” का केन्द्रीय चरित्र हैं और मंत्र कहानी के बृध्द दम्पत्ति जो संाप काटने का इलाज झाड्फूंक से करते हैं.सन 1930 से 1940 के बीच बनी फिल्म् अछूत कन्या और 1950-60 के बीच बनी फिल्में ”देवदास,सुजाता, ओर कुछ हद तक प्यासा और दो बीघा जमीन भी दलित जो सच्चा मेहनतकष भी है की समस्याओं और संघर्शपूर्ण जीवन की सच्चाइयों को दिखातीं हैं.साहित्य में निराला के ”बिल्लेसुर बकरीहा” जो हैं तो ब्राह्मण पर दलित जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं और ”चतुरी चमार” जैसे छोटे छोटे उपन्यास बखूबी सामाजिक विद्रूपताओं को बेनकाब करते हैं.फणीष्वरनाथ रेणु के उपन्यासों ”पंचलाइट”,”तीसरी कसम”,”रस प्रिया,” ”लाल पान की बेगम ”, ”और मैला आंचल ” में अनगिनित दलित चरित्र हैं.प्रेमचन्द के उपन्यास ”रंगभूमि” में सूरदास और ”गोदान” में गोबर और सिलया के प्रेम प्रसंगों को कैसे भुलाया जा सकता है.इन सारी रचनाओं ओर चरित्रों को याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि समाज इतिहास और साहित्य में दलित चेतना जैसी महत्व्पूर्ण पृवित्ति को अलग अलग द्वीप की तरह विवेचित और विष्लेशित नहीं किया जा सकता है.सभी विधाओं और माध्यमों मे लगभग एक साथ ऐसी चेतना का उदभव और विकास होता है.आज हम देख रहें हैं कि रजनीत में दलितों के उभार के साथ- साथ साहित्य ,कला और संस्कृति के क्षेत्र में आषातीत विस्तार हो रहा है. बेषक हमारा गलीज इतिहास दलितों के साथ षोशण, अन्याय और अपमान का वीभत्स चेहरा पेष करता है जो घिनौना भी है और डरावना भी. समाज के लोकतंत्रीकरण और राजनीतिककरण के बाबजूद उनकी आर्थिक-सामाजिक मुक्ति का सवाल ज्यों का त्यों खडा है. आज दलित वोट बैंक की राजनीत हो रही दलित की सम्पूर्ण मुक्ति की नहीं जो अम्बेडकर का सपना था और जिसके लिए अंबेडकर पूरी जिन्दगी लडे.वे रियायतें नहीं सम्पूर्ण मानवाधिकारों के लिए लड रहे थे. दलित वर्ग के लेखक आज नये तेवर और नये सौन्दर्यषस्त्र के साथ सामने आ रहे हैं . उम्मीद की जा सकती है कि उससे सामाजिक परिवर्तन् की राजनीत को नयी दिषा मिलेगी.

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