Thursday, September 15, 2011

जबाबदेह लोकतंत्र के लिए चुनाव सूधार जरुरी


भागवान स्वरूप कटियार
आजादी के बाद के ६४-६५ सालों में संसदीय लोकतंत्र ने देशवासियों को जिस तरह निराशा और हताशा किया उससे एक बात तो साफ है कि जनता ने जिन्हें चुन कर संसद और विधान सभाओं में भेजा वे देशवासीयों की कसौटी पर खरे नहीं उतरे । भ्रष्ट राजनीत और भ्रष्ट नौकरशाही के गठजोड़ ने देश को एक उपनिवेश में तब्दील कर दिया जहां भ्रश्टाचार के साम्राज्य में जनता की कोई आवाज नहीं होती . जनता तो महज मतदान तक सीमत है जैसे कोई गरीब साहूकार की बही में अंगूठा लगा कर जिनदगी भर के लिए बन्धक हो जाता है ़ लोकतंत्र में जनता ही मालिक होती है पर हिन्दुस्तान में उसकी स्थिति नौकर से भी बदतर हो है हमारी चुनावी प्रक्रिया में ही ऐसी खामियां हैं जिसके कारण धनबल और बाहुबल का सहारा लेकर संसद और विधान सभाओं में घटीया और भ्रष्ट - अपराधी लोग चुन लिये जाते हैं पर् स्वच्छ छवि वाले,ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ तथा देशभक्त लोग चुन कर नहीं आपाते . यही बजह है देष में व्यवस्था नहीं बदलती सिर्फ सत्ता बदलती है .भ्रष्टाचार में आंकठ डूबा यह देश आंतकी हमलों तथा आंन्तरिक खतरों और बाह्य सुरक्षा के खतरों से जूझ रह है . महगाई ने लोगों का जीना दूभर कर दिया और हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं . मतदान के द्वारा जनता का भरोसा और विष्वास की षक्ति अगर उनकी जादू की छड़ी नहीं बन सकती तो यह उनकी राजनैतिक इच्छाशक्ति का दिवालियापन है .
चुनाव सुधार से हमारी अपेक्षाए क्या हैं ,इसी से तय होंगी चुनाव सुधार की षर्ते और व्यवस्थाएं . सबसे पहले तो हम अनिवार्य मतदान के प्रावधान के जरिये सभी देशवासियों को जबाबदेह् सरकार और जबाबदेह विपक्ष चुनने में भागीदार बनायें ताकि छù बहुमत क ेबल पर अल्पमत की सरकारें ना चुनी जा सकें . अपराधी और अपराधी छवि के लोग चुनाव में प्रत्याषियों के रूप में हिस्सा ना ले सकें इसके लिए भी कानून बना कर वन्दिश लगाये जाने सख्त जरूरत है . आस्ट्रेलिया जैसे अनेक देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था है जहां मतदान के दिन कोई अवकाश नहीं होता है . वहां यह चुनाव प्रक्रिया एक सप्ताह तक चलतीन है . बीमार अथवा चलने फिरने में असमर्थ व्यक्ति के घर जाकर मतदान संम्पन्न कराया जाता है .दृढ़ इच्छाषक्ति से सबकुछ संभव है . बेहतर हो चुनाव सरकारी खर्चे पर हो अर्थत किसी भी राजनैतिकदल को चुनाव में किसी भी रूप में धन के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया जाय ताकि धन उगाही का मूल स्रोत ही खत्म हो जाय, और धनबल पूर्णरूपेण रोक लगायी जा सके. सभी पार्टियों में आन्तरिक लोक्तंत्र सुनिश्चित किया जाय जिसके लिए नियमित चुनाव चुनाव आयोग के अधीन करवाये जांय जिसमें कर्मठ और सक्रिय कार्यकरताओं को भी अवसर मिल सके और परिवारवाद पर रोक लगे और ल्ग नीचे चुन कर ऊपर तक पहुंचें .सभी पार्टियां चुनाव आयोग द्वाारा निर्धारित सदस्यता षुल्क के आधार पर सदस्य बनायें और उस सदस्यता धनराशी का सरकारी आडिट हो और चुनाव आयोग के माध्यम से सभी दलों की आडिट रिपोर्ट संसद में पेष की जाय ताकि देशवासी भी राजनैतिक पार्टियों की हकीकत से वाकिफ हो सकें . गांन्धी जी के अनुसार राजनीत को सहज और सादगीपूर्ण बनाया जाय ताकि आम आदमी भी राजनीत में अपनी सक्रिय भागीदारी कर सके . हर पार्टी का लिखित सिध्दान्त एवं संविधान हो और देश के लिए कार्यक्रम की रूपरेखा भी हो जो चुनाव आयोग के यहां पंजीकृत हो और किसी भी तरह के विचलन या उनके उल्लघन पर आयोग को कार्यवाही का अधिकार हो . सांसदनिधि और विधायकनिधि पूर्णरूप से समाप्त की जाय क्योंकि इसके दुरुपयोग के परिणाम हम रोज भोग रहे हैं . सांसदों के अनापसनाप वेतन और सुविधाएं उन्हें लालची और सामन्ती प्रवृत्ति का बनाती हैं जबकि सही मायनें में वे जनता के सेवक हैं पर उनका व्यवहार शासकों जैसा होता है . जनप्रतिनिधियों से सुरक्षाव्यवस्था तुरन्त हटा लेना चाहिए ताकि जनता और उनके बीच नजदीकियां विकसित हो सके जैसा कि आजादी के बाद के एक दो दसकों में एक पारस्परिक रिष्ता रहा है . लोकषाही को मजबूत और देश के लिए उपयोगी बनाने के लिए लोक का सषक्तीकरण बेहद जरूरी है . जनप्रतिनिधियों की जबाबदेही संसद और विधान सभाओं के साथ साथ जनता के प्रति भी होना चाहिए ताकि जनता उन्हे अपना सच्चा प्रतिनिधि महसूस कर सके . संसद और विधान सभाओं के प्रत्याशी अपने जन्म स्थान वाले चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़े . अन्य किसी चुनाव क्षेत्र से चुनाव लडना राजनीतिक बेईमानी है. और इसी प्रकार राज्य सभा के सदस्य को प्रधानमंत्री और विधान परिषद् के सदस्य को मुख्यमंत्री चुननें की पात्रता में ना रखा जाय . संसद और विधान सभाओं की की कार्यवाही सत्रों की मीटिंग्स की संख्या और बढ़ाई जानी चाहिए तथा नियमों में सुधार कर सभी बैठकों में सभी सदस्यों की उपस्थिति को अनिवार्य किया जाय . आखिर उसके लिए उन्हें सरकारी खजाने से खासी मोटी रकम भुगतान की जाती है जो जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है . संसद और विधान सभाओं का बहिश्कार तथा उनको अवरुध्द करने को गैर कानूनी बनाया जाय ताकि अधिक से अधिक काम को अंजाम दिया जा सके . कोशिश की जानी चाहिए कि सत्तापक्ष और विपक्ष एक सौहार्दपूर्ण ढंग से सकारात्मक दृश्टिकोण से सदन के संचालन में सहयोग करें आखिर वे सब भी तो देश के प्रति प्रतिबध्द है़ं . निराधार और मिथ्या आरोप - प्रत्यारोप और महज आलोचना के लिए आलोचना से बचा जाना चाहिए . हम दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ,हमें तो दुनियां का रोल माडल बनना चाहिए . संसद या विधान सभाओं में सदस्यों के योगदान तथा सामूहिकरूप से संसद और विधान सभाओं के योगदान का लेखाजोखा पटल पर पेश किया जाना चाहिए ताकि देश की जनता उनकी औकात आंक सके और चुनाव क्षेत्रों में जाने पर पूंछ सके कि फला मुद्दे पर आप चुप क्यों रहे या ऐसा बोलने के बजाय ऐसा क्यौं बोले क्योंकि आखिर वे हैं तो अपने मतदाताओं की ही आवाज .आज संसद बनाम सड़क की बहस छिड़ी है जो बेजह और बेबुनियाद है . संसद ,संसद है और सड़क यानी जनता ,जनता है . पर दोनों की सर्वोच्चता अपनी अपनी जगह है और सर्वोच्च्तताओं को टकराने की बजाय समन्वय और सहयोग से काम करने की जरूरत है . आखिर दोनों का केन्द्रक तो देश और् देशहित ही है . जब देश ही नहीं होगा तो दोनों का अस्तित्व भी नहीं होगा . आज संसद और विधान सभाओं में जिस तरह के लोग चुन कर आरहे हैं और स्वार्थपरिता में लिप्त होकर देश को दरकिनार कर रहे हैं ,सारा संकट उसी से खड़ा हुआ और उसी ने संसद और संसदीय राजनीत की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया है . जिससे पूरा राजनैतिक समाज मुंह चुरा रहा है . जब कोई स्वतःस्फूर्ति जनान्दोलन व्यवस्था परिवर्तन के लिए अंहिसकरूप में सड़कों पर उतर आता है तब संसद की दीवारें हिलने लगती हैं और उसे संसद विरोधी और संविधानविरोधी कहा जाने लगता है . जबकि वह आन्दोलन सिर्फ और सिर्फ भ्रष्ट और निरंकुश सत्ता के विरोध में एक सकारात्मक बदलाव के लिए खड़ा होता है . गान्धी जी बराबर कहते रहे कि असली लोकशाही संसद और विधान सभाओं से बाहर जनता के बीच रहती है और उसे मजबूत करने की जरूरत है ताकि संवैधानिक संस्थाओं को जबाबदेह , पारदर्शी और जनोन्मोख बनाया जा सके . और डा॰ लोहिया इसीलिए ताजिन्दगी जनान्दोलन की राजनीत करते रहे और महज एक बार संसद में चुनकर गये . आचार्य नरेन्द्र देव जैसे देश भक्त को चुनाव में कैसे मात दी जाती है किसी से छिपा नहीं है .
अमेरिका ,कनाडा और डेनमार्क ,स्वीडन ,स्विटजरलैंड , आस्ट्रेलिया , जापान तथा सिंगापुर आदि देषों से हमें सीखना चाहिए कि दुर्व्यावस्था को कैसे एक कारगर व्यवस्था में तब्दील किया जाय ना कि यह कह कर छुट्टी पा ली जाय कि सरकार के पास जादू की छड़ी नहीं है . चुनाव प्रक्रिया में राइट टू रिजेक्ट और राइट तू रिकाल के प्रावधानों के साथ साथ ऐसे प्रावधान भी किये जांय कि संसद के बाहर से भी जनता की आवाज सुनी जाय और उन्हें आउटसाइडर कहकर उपेक्षित या बहिष्कृत ना किया जाय . राश्ट्रीयव्यापी मुद्दों पर रिफरेंन्डम और प्रिलेगिस्लेटिव डिस्कोर्स की भी व्यवस्था का प्राविधान लोकशाही को मजबूत बनायेगा .इन सभी महत्व्पूर्ण मुद्दों पार राश्ट्रीय स्तर पर व्यापक बहस की जरूरत है .पर संसद और संसदीय राजनीत का चेहरा बदलने के लिए चुनाव सुधार समय की मांग है हमारी जरूरत भी .

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